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संक्षिप्त जैन इतिहास ।
होलिगे उण्डे इत्यादि मिठाइयोंका भी उल्लेख मिलता है । मद्यादि मादक वस्तुओंको वे छूते भी नहीं थे- केवल पान-सुपारी खानेका रिवाज था । धनीवर्ग इसप्रकारकी आनंदरे लियां और मनोविनोद किया करते थे कि जिसमें किसी प्रकारकी हिंसा न हो। आने वस्त्राभूषणोंमें भी वे लोग सादगीका ध्यान रखते थे। स्त्रियां लम्बी और बड़ी साडियां तथा रङ्ग-बिरंगी चोलियां पहना करती थीं। नृतकियां मवश्य पैजामा पहनतीं थीं, जिससे कि उन्हें नाचने में मुविधा रहती थी। सबही स्त्रियां प्रायः मणिमुक्ताजडित करधनी. हार, बालियां, गलेबन्द आदि माभूषण पहनतीं थीं। वे शरीरपर जाफरानका लेप भी सुगंधिके लिये करती थीं। शिके बालोंमें वे फूलोंकी माका और गुलदस्ते भी लगाती थीं।' जैनधर्मकी शिक्षाका बाहुल्य जनतामें शील और विनय गुणों को
बढ़ाने में कार्यकारी ही हुआ था । यही कारण महिलायें। है कि गणवाड़ीकी तत्कालीन स्त्रियां भादर्श
रमणियां थीं। उनमें शिक्षाका काफी प्रचार था। वे गणित, व्याकरण, छंदशास्त्र और ललित कलाओंको सीखती थीं। शिलालेखोंसे प्रगट है कि राजकुमारियां परम विदुषी और कविननोंकी माश्रयदात्री हुमा करती थीं । उनमें संगीत, नृत्य और वादिनलाओं का प्रचार प्रचुर मात्रामे था। वे भालेख्य और चित्र. कलाओं में भी निपुण हुमा करती थीं । निस्सन्देह राजकुमारियों के किये इन कलाओंमें दक्ष होना मावश्यक समझा जाता था। नृत्य.
१-गंग० पृ. २८.-२९०। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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