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संक्षिप्त जैन इतिहास |
उपाधि धारण की थी, जिसे उपरांत गङ्ग वंशके सभी राजाओंने
धारण किया था ।
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राजमल्लका पुत्र नीतिमार्ग उसके बाद राजसिंहासनपर बैठा । उसका नाम सम्मानसूचक होनेके कारण उसके उत्तराधिकारियोंने उसे विरुद-रूप में
नीतिमार्ग |
धारण किया था । उसका मूल नाम एरेयगङ्ग - था और किन्हीं शिलालेखों में उन्हें रण - विक्रमादित्य भी कहा है । वह भी सन् ८१५ और ८७८ ई० के मध्य शासन करनेवाले - राष्ट्रकूट सम्राट् अमोघवर्षके समकालीन थे । अमोघवर्षने एकवार फिर गङ्गवाड़ीको विजय करनेका उद्योग किया था, परन्तु उसमें वह असफल रहे । नीतिमार्गने अपने पिताकी नीतिका अनुसरण करके गङ्ग राज्यका पूर्व गौरव अक्षुष्ण रक्खा था । राजगद्दीपर बैठते ही नीतिमार्गने बाणवंश के राजाओंसे युद्ध छेड़ा और उसमें वह सफल हुये । उपरांत अमोघवर्षकी सुदृढ़ सेनाको उन्होंने सन् ८६८ ई० में - राजारमाडूके मैदान में बुरी तरहसे परास्त किया था । इस पराजयने अमोघवर्षके हृदयको ही पलट दिया- उन्होंने गोंसे विद्रोहके स्थान पर मैत्री स्थापित कर की। अपनी सुकुमार पुत्री चन्द्रव्वलव्वेका व्याद उन्होंने गङ्ग युवराज बुटुगके साथ कर दिया । तथा दूसरी संखा नामक पुत्री उन्होंने पल्लवराजा नन्दिवर्मन् तृतीयको व्याह दी। नीतिमार्ग भी अमोघवर्ष के समान जैन धर्मानुयायी थे मौर प्रसिद्ध जैनाचार्य जिनसेन के समसामयिक थे । वह एक महान् शासक,
१- गङ्ग• ७६-७.
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