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गङ्ग-राजवंश।
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हुआ और इस काल में अनेक धुरंधर ज... दिगम्बर जैनाचार्य । चायों ने उसके नाम और काममें चार चांद
लगा दिये । उनके सतत और पुनीत अध्यवसायके वशवर्ती हो दिगम्बर जैनधर्म दक्षिण भारतमें नवीं शताब्दि तक सर्वोपरि रहा । इतिहासको सर्व प्राचीन दिगम्बर जैनाचार्य रूपमें श्रुत केवली भद्रबाहुका ही पता है । वह मौर्यसम्राट् चन्द्रगुप्तके साथ जैनसंघको लेकर दक्षिणभारतमें भाये थे और श्रवणबेळगोलमें ठहरे और समाधिको प्राप्त हुये थे, यह हम पहले लिख चुके हैं। उस जनसंघ द्वारा जैनधर्म का खूब प्रचार हुमा था। श्रवणबेलगोल, पंचपांडवमलय आदि स्थान संभवतः इन्हीं साधुओंके कारण तीर्थरूपमें प्रसिद्ध हुये थे। इन साधुओंकी तपस्यासे पवित्र हुये स्थान भला क्यों न पूज्य होते ? जनता इन साधुओंको चमत्कारिक ऋद्धि-सिद्धि दाता भी मानते थे और उनकी पूजा विनय श्रद्धापूर्वक करते थे। प्रत्येक सभदायके भाचार्य अपने मतको ही सर्वप्रधान बनाने का उसोग करते थे। जैनाचार्यों ने इस अवसरसे काम उठाया और चौथी शताब्दिके लगभग जैनधर्म को पांड्य, चोल और चेर देशोंमें प्रमुखपदपर ला बैठाया । गामिल साहित्य जनों के संरक्षणमें वृद्धिंगत हुमा। कुंदकुंदाचार्य सदृश प्राचीन और महान् आचार्यने इस पुनीत कार्यमें भपनेको उत्सर्ग कर दिया, यह पहले लिखा जाचुका है। __ कहते हैं कि वह द्राविड़सबके मूलस्थान पाटलीपुत्रमें ही संमतः रहते थे और उनके शिष्य प्रसिद्ध पल्लव राजकुमार शिवकुमार महारान थे, जिनके लिये उन्होंने अपने अनूठे ग्रंथ-रत्न लिखे थे। उन्होंने
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