________________
१०८]
संक्षिप्त जैन इतिहास |
19
जैनधर्मका द्योत किया था । इस वृतान्तसे स्पष्ट है कि (१) पूज्यपाद कर्णाटक देशके अधिवासी ब्राह्मण थे, (२) उनका कार्यक्षेत्र भी वहां ही था, (३) उन्होंने विदेहक्षेत्रकी यात्रा की थी, (४) जैनेन्द्र व्याकरण आदि ग्रन्थोंको उन्होंने रचा था, (५) और वह एक बड़े योगी एवं मंत्रवादी थे । 'पूज्यपाद चरित्र' में वर्णित इन बातों का समर्थन अन्य स्रोत से भी होता है । गङ्ग-राजा दुर्विनीत के वह गुरु थे, यह पहले लिखा जा चुका है । अतः पूज्यपादका कार्यक्षेत्र दक्षिण भारत ही प्रमाणित होता है । मर्करा (कुर्ग ) के प्राचीन ताम्रपत्र ( वि० सं० १२३ ) में कुन्दकुन्दान्वय और देशीयगणक मुनियोंकी परम्परा इसप्रकार दी है: - गुणचन्द्र, अभयनंदि, शीलमद्र, ज्ञाननंदि, गुणनंदि, और वदननंदि । अनुमान किया जाता है कि पूज्यपाद इन्हीं वदननंदि आचार्य के शिष्य अथवा प्रशिष्य थे। उनके सम्बन्ध में निम्न श्लोक भी विद्वानों द्वारा उपस्थित किया जाता है
' यो देवनन्दि प्रथमाभिधानो । बुद्धया महत्या स जिनेन्द्रबुद्धिः ॥ श्री पूज्यपादोऽजनि देवताभियत्पूजितं पादयुगं यदीयम् । '
भावार्थ - ' उन आचार्यका पहला नाम देवनन्दि था, बुद्धि की महत्ता के कारण वे जिनेन्द्रबुद्धि कहलाये और देवोंने उनके चरणोंकी पूजा की, इस कारण उनका नाम पूज्यपाद हुआ । श्रवणबेलगोल के ( नं. १०८ ) मंगगज कविकृत शिलालेख में (वि. १ - जेहि० मा० १५ १० १०५ ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com