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संक्षिप्त जैन इतिहास ।
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थी। शिक्षाका उद्देश्य विद्यार्थीको एक धर्मात्मा और सेवाभावका धारी नागरिक बनाना था। उसमें शारीरिक और बौद्धिक विकासके साथ२ आत्मोन्नत का भी ध्यान रखा जाता था । साांशतः गङ्गराज्यमें शिक्षाको सर्वोगी बनाने का ध्यान रखा गया था । नीति मार्गके ज्येष्ठपुत्र नरसिंहदेव के विषय में कहा गया कि वह राजनीति, हम्नविद्या, धनुर्विद्या, व्याकरण, शास्त्र, मायुर्वेद, भारतशास्त्र, काव्य, इतिहास, नृत्यकला, सांगीत और वादित्रकलामें निपुण थे। संगीत और नृत्य कलायें प्रायः प्रत्येक विद्यार्थी सीखता था । राज. कुमारियां भी इन कलाओंमें दक्ष हुमा करती थीं और राजदरबारों में उनका प्रदर्शन करने में वे लज्जाका अनुभव नहीं करती थीं । शिलाविद्याकी शिक्षा सन्तान क्रमसे कुल में चली भाती थी । शिल्पियोंकी 'वीरपञ्चल' संस्था खुब ही संगठित और समुन्नत थीं, जिनमें सुनार (अक्कसलिग), सिक्के ढालनेवाले ( कम्मद अचारीगल) लुहार (कम्मर ), बढ़ई और मैमार ( राज) सम्मिलित थे। तक्षण और स्थापत्यकलाकी उन्नति पञ्चल लोगों द्वाग खुब हुई थी। यह पञ्चक लोग मानेको विश्वकर्मा ब्राह्मण कहते थे और इनके नामके साथ 'अचारी' पद प्रयुक्त होता था । गङ्गोंके किन्हीं शासन लेखोंमें इन्हें 'मोजा' व 'ओज्झा' और 'श्रीमत्' भी लिखा है। प्रसिद्ध गोम्मट मूर्तिके एक शिरसीका नाम विदिगोजा था और राजमल्ल प्रथम (८२८ ई.) के समय मधुरोबझा प्रसिद्ध शिल्पाचार्य थे। समा. जो इन शिल्पियोंका सम्बान विषयो।
१-गंग• पृष्ठ २६७-२६० ।
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