Book Title: Sankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 02
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 136
________________ ११४] संक्षिप्त जैन इतिहास । सम्बन्दरक उद्योगोंके परिणाम स्वरूर जैनधर्म हतप्रभ हुभा तो अप. रने उन्हें पल्लवदेशमें न-कहींका बना छोड़ा, यह पहले ही लिखा जाचुका है । उधर दक्षिणपथमें अद्वैतवादी शंकराचार्य और मनिकवचकरके प्रचारसे जैनधर्मको काफी धक्का लगा। परिणामतः दक्षिण भारतमें जैनोंकी संख्या, जैनोंकी राजकीय प्रतिष्ठा और उनका प्रभाव क्षीण होगया । इस अवस्थामें भी एक विशेषता उनमें पूर्ववत् रही और वह यह कि उनका बौद्धिक-विकाश ज्योंका त्यों रहा । उन्होंने व्याकरण, न्याय और ज्योतिष विषयोंक अनूठे ग्रंथोंको सिरजा । मला, पेरियकुलम् , पल्लि और मदुग नामक तालुकोसे जो शिलालेख मिले हैं उनसे स्पष्ट है कि उतने प्रदेशमें जैनधर्मका प्रभाव तब भी अक्षुण्ण रहा था। मुनि कुरुन्दि मष्टोरवासी और उनके शिष्योंने यहां खासा धर्मपचार किया था। 'जीवकचिन्तामणि' नामक ग्रन्थसे प्रगट है कि भाचार्य गुणसेन. नागनंदि, मरिष्टनेमि और अजनन्दि भी इसी समय हुए थे, जिन्होंने अपनी धर्मपराय. णतासे भव्यों का उपकार किया था। श्री गुणभद्राचार्य के शिष्यमण्डल पुरुष भी इन प्रचारकोंके साथ उल्लेखनीय हैं। उन्होंने तामिलभाषामें एक छंदशास्त्र रचा था । पल्लव और पाण्ड्यदेशोंमें निर्गसित होकर मधिकांश जैनी गंगवाड़ीमें ही मारहे। श्रवणबेलगोल उनका केन्द्र था। गंगवाड़ीमें भाये हुये इन जैनियोंमें इस समय कतिपय विशेष उल्लेखनीय भाचार्य हुये, जिनका प्रभाव न उपरांतके दिगम्बर वेवळ गंगवाड़ीपर बल्कि राष्ट्रकूट-राज्य पर जैनाचार्य। भी था। इनमें श्री प्रमाचन्द्राचार्य राठौर . 1-गंग०, १९९-२०२। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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