Book Title: Sankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 02
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 131
________________ गङ्ग- राजवंश । [ १०९ सं० ० १५००) में उनके विषय में नीचे लिखे श्लोक उपलब्त्र होते हैं ." श्री पूज्यपादोद्धृनधर्म र ज्यस्थतः सुराधीश्वर पूज्यपादः । । यदीयदु गुगा!नदान वदन्ति शाखाणि तदुद्धानि ॥ १५ ॥ विश्वबुद्धरयमत्र योगिभिः कृतकत्वभावमनुविदुच्चकैः । जिनवद्वभुव यदगचापहृत्स जिनेन्द्रबुद्धिरिति सधुरिः ॥ १६ ॥ श्री पूज्यपादमुनिरप्रतिमोषद्धि जीयाद्विदेह जिनदर्शन पूनगात्रः । यत्पादधौत जलसंस्पर्श प्रभावात् कालायसं किल तदा कनकीचकार ॥१७॥' इन श्लोकोंका अभिप्राय यह है कि पूज्यपाद स्वामी देवेन्द्र द्वारा पूज्यनीय थे । वह बड़े गुणी, बहु शास्त्र विज्ञ, विश्वोवकारकी बुद्धि धारक परम योगी थे। वह अपनी बुद्धि की प्रकर्षा के कारण जिनेन्द्रबुद्धि कहलाते थे । वह औषधि ऋद्धि के धारण करनेवालेविदेह क्षेत्र में स्थित जिनेन्द्र के दर्शन द्वारा हुए पवित्रगात थे और उनके पदप्रक्षालित जलसे लोहा भी सोना होजाता था । विद्वानों ने उनकी विद्या और प्रतिभाकी पद-पदपर प्रशंपा की है और उनका उल्लेख संक्षिप्त 'देव' नामसे भी किया है। श्री वादिराजने उनकी अचिन्त्य महिमा बताई' और श्री जिनसेनाचार्यने उन्हें देववन्द्य एवं 'जैनेन्द्र' नामक व्याकरणका कर्त्ता लिखा है। श्री शुमचंद्राचार्यने उनको सदा पूज्यपाद वैयाकरण कहा है और धनंजय कविने भी उनके व्याकरणका उल्लेख किया है । वैयाकरण के रूपमें 3 १ - ' अचिन्त्यमहिमा देवः सोऽभिनंद्य हितैषिणा । - पार्श्वनाथचरित स १. २ - ' इन्द्रचन्द्रार्क जैनेन्द्रव्यापि व्याकरणे क्षिगः । देवस्य देववन्द्यस्य न वंदते गिरः कथम् ॥ ' - हरिवंश पुराण । ३- 'पूज्यपादः सदा पूज्यपादः पूज्यैः पुनातु माम् । इत्यादि । - पांडवपुराण | पूज्यपादस्य लक्षणम् । – नाममाला । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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