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गङ्ग राजवंश ।
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आचार्य पात्रकेसरीका स्थान तत्कालीन जैन संघमें उल्लेखनीय था । वह जन्मसे जैनी नहीं थे। जैन धर्ममें
पात्रकेसरी |
वह दीक्षित हुए थे। इस घटना से उस समय के जैनाचार्यों के धर्मप्रचारका महत्व स्पष्ट होता है । उनके निकट धर्मप्रभावना केवल नयनाभिराम मंदिरों और । मूर्तियों को बना देने से ही नहीं थी, बल्कि मिथ्यादृष्टियों के अज्ञानको मिटा देना ही उनके निकट सच्चा धर्मप्रभाव था । पात्रकेसरी के समान उद्भट वैदिक धर्मानुयायी ब्राह्मण विद्वान्का जैनी होना उन जैनाचार्यों के अकाट्य पाण्डित्य और प्रतिभाका ज्ञापक है | आचार्य पात्रकेसरीका कर्मक्षेत्र अहिच्छत्र नामक स्थान थे । वहां वह राज्य में किसी अच्छे पदपर आसीन थे । स्वामी समन्तभद्र के 'देवागम' स्तोत्र को सुनकर उनकी श्रद्धा पलट गई थी और वह जैनधर्म में दीक्षित होगये थे | जैनी होनेपर उनके भाव उत्तरोत्तर पवित्र होते गये | यहांतक I कि वह अन्ततः दिगम्बर जैन मुनि होगए। मुनि दशा में वह पवित्र आचारको पालते और निर्मक ज्ञानको प्रकाशित करते थे ।
" भगवज्जिन सेनाचार्य जैसे आचार्योंने आपकी स्तुति की है और आरके निर्मक गुगको विद्वानों के हृदयपर हार की तरहसे आरूढ़ बतलाया है । " पात्रकेसरी स्वामीने ' जिनेन्द्र गुण संस्तुति ' नामक एक स्तोत्र ग्रन्थ रचा था, जिसे " पात्रकेसरी स्तोत्र " भी कहते हैं और जो 'माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला' में छप चुका है । इस
१- अहिच्छत्र नामक स्थान दक्षिण भारत में भी था। चूंकि पात्र - केशरीके समसामयिक विद्वान् दक्षिण में ही हुए थे, इसलिए वह भी दक्षिण अहिच्छत्र में हुए प्रतीत होते हैं ।
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