________________
ENSIV .
.
गङ्ग राजवंश। ९९ लोगोंमें प्रचलित थे। ब्राह्मणलोग पहले शैव धर्मके ही अनुयायी थे। कुछ लोग 'शक्ति के भी पुजारी थे। उपरांत वैष्णवधर्मका भी प्रचार होगया था। जैनधर्मने अपना महत्वशाली स्थान प्राचीनकालसे जनतामें कर रक्खा था। दक्षिणका जैनधर्म वही प्राचीन धर्म था जिसका उपदेश अंतिम तीर्थकर भगवान महावीरने दिया था; क्योंकि भद्रबाहुस्वामीके समयमें जैन संघ भविभक्त था और उसी भविभक्त संघके अधिकांश भाचार्य और साधु दक्षिण भारतमें माये थे। वह लोग अपनेको 'मूलसंघ'का बतलाते थे। निस्सन्देह श्वेतांबर जैनी वहां मिलते भी नहीं हैं । मंदिरोंमें दिगम्बर प्रतिमायें ही स्थापित की जाती थीं और उनको ही लोग पूजते थे । ईस्वी प्रारम्भिक शतांब्दियों तक बौद्ध धर्म भी दक्षिणमें प्रचलित रहा; परन्तु अपने शून्यवाद और क्रियाकांडके सर्वथा अभावके कारण वह वहां ब्राह्मणों और जैनों के सम्मुख टिक न सका। गंग वंशके राजा मुख्यतः जैनधर्मके ही भक्त थे; परन्तु धार्मिक
विषयोंमें उनकी राजनैतिक रीति-नीति गंगराजा और समुदार थी। वे जैनोंके साथ ब्राह्मणों और जैनधर्म। बौद्धोंका भी भादर-सत्कार करते थे और
किसी किसी रानाने उनको दान भी दिया था। किंतु जैनधर्म पर गंगराजा विशेष रूपमें सदय हुये थे। हम लिख चुके हैं कि गंग वंशके मादि पुरुष माधव और दिदिग जैनाचार्य सिंहनंदिके शिष्य थे, जिन्होंने उन्हें जैनधर्ममें दीक्षित
-गंग०, पृ० १७९-१९० ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com