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९.] संक्षिप्त जैन इतिहास । बहे थे। यद्यपि जैनाचार्यों के पथप्रदर्शनको वह महत्व देते थे। प्रारं. ममें ही दिदिग और माधवने श्री सिंहनन्दाचार्यके उपदेशको शिरोधार्य किया था। उपरांत विजयकीर्ति और पूज्यपादके सत्परामर्शसे क्रमशः भविनीत और दुर्विनीतने लाभ उठाया था एवं श्री तोरणाचार्य और उनके शिष्य पुष्पनन्दि राजा शिवमारके गुरु थे। इन भाचार्यो का धर्मो देश शासनोंके जीवनोंको समुन्नत और समुदार बनाने में कार्यकारी हुआ था । * राजत्वके भादर्शको महत्व देनेवाले गङ्ग राजामों के प्रति
उच्छृङ्खलताकी भाशङ्का करना भाकाश नियंत्रण । कुसुमवत् था। वह स्वाधीन होते हुये भी
उच्छङ्कल नहीं थे। प्राचीन राजकीय नियमोंकी प्रतिपालना करना और कराना ही उनका धर्म था। उसपर उनके राज्यमें भनेक सामन्तों का सद्भाव था। कदाचित् कोई राजा अन्यायकी ओर पग बढ़ाता तो यह सामन्तगण सब मिलकर उसका प्रतिकार कर सकते थे। साथ ही राजमंत्रियों का मस्तित्व भी राजाकी शक्तिको परिमित बनाने में कार्यकारी था। राजस्वका उत्तराधिकार वंश परम्परागत था। ज्येष्ठ पुत्र ही पिताके पश्चात् राजा होता था; परन्तु यदि राजसंतानमें कोई और पुत्र अथवा भाई योग्यतम प्रमाणित होता था तो वही राजा बनाया जाता था । राज्याभिषेकके पहले मंत्रिमण्डल और राजपके प्रमुख पुरुषोंकी स्वीकारता प्राप्त करना भी भावश्यक्त थे।।
* गंग० पृ. ११८-१२४. १-गंग० पृ. १२५-१२६. .
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