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संक्षिप्त जैन इतिहास ।
संख्या जैनोंकी ही थी। प्राचीन चैर, पांड्य और पल्लव राजवंशोंके प्रमुख पुरुष जैन धर्मके भक्त थे। उधर पूर्वीय मैसूरमें गवंशके प्रायः सब ही राजाभोंने जैन धर्मको स्वीकार किया और माश्रय दिया था। किन्तु कदम्ब वंशके गजामोंने प्रारम्भमें ब्राह्मण मतको उन्नत बनानेका उद्योग किया। उनमेंसे कई राजाओंने हिंसक मश्वमेघ यज्ञ भी रचे थे; परन्तु उपरांत वह भी जैन धर्मकी दयामय कल्याणकारी शिक्षासे प्रभावित हुये थे। मृगेशसे हरिवर्मातक कदम्ब राजाभोंने जैन धर्मको आश्रय दिया था। मृगेशवर्माका गार्ह स्थिक जीवन समुदार था। उनकी दो रानियां थीं । प्रधान रानी जैन धर्मानुयायी थी, परन्तु दूसरी रानी प्रभावती ब्राह्मणोंकी अनन्य भक्त थी। मृगेश स्वयं जैन धर्मानुयायी थे। उन्होंने अपने राज्यके तीसरे वर्ष जिनेन्द्रके अभिषेक, उपलेपन, पूजन, भन्न संस्कार ( मरम्मत ) और महिमा (प्रभावना) कार्योंके लिये भूमिका दान किया था। उस भूमिमें एक निवर्तन भूमि खालिश पुष्पोंके लिये निर्दिष्ट थी। मृगेशवर्माका एक दूसरा दानपत्र भी मिलता है, जिसमें उन्हें 'धर्ममहाराज श्री विजयशीव मृगेशवर्मा ' कहा है और जो उसके सेनापति नरवरका लिखाया
|-After the Naga worship, Jainism claimed the largest number of voteries.-QJus xxII, 61. २-जमीसो॰, भा॰ २२, पृ. ६१. 3-जमीसो०, मा. २१, पृ. ३२१. ४-जेहि०, भा० १४, पृ० २२६-"श्री मृगेश्वरवर्मा आत्मनः राज्यस्य तृतीये वर्षे...वृहत् परलूरे (1) त्रिदशमुकुट परिषचारचरणोभ्यः परमाहदेवेभ्यः संमार्जनोपलेपनाभ्यञ्चनभ
मसंस्कार महिमाये...एकं निवर्तनं पुष्पार्थे।" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com