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संक्षिप्त जैन इतिहास ।
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करने के लिये उत्साहित करते हैं । उनके समान धर्मात्मा शासकोंके समयमें जनता धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थोका समुचित पालन करके उनके सुमधुर फलका उपभोग करती थी। रविवर्माका माई भानुवर्मा भी जैनधर्मका परम-भक्त था। उन्होंने भी जिनेन्द्रके भभिषेकके लिये भूमिदान दिया था। जिससे प्रत्येक पूर्णिमाको अभिषेक हुआ करता था। भानुवर्माके इस दानपत्रको उनके कपापात्र प ण्डर नामक भोजकने लिखा था, जो अपने स्वामीके समान ही दृढ़ आईत-भक्त था ।' विवर्माका उत्तगधिकारी हरिवर्मा भी अपने प्रारम्भिक जीवनमें जैनधर्मका श्रद्धालु था; परन्तु अपने अंतिम जीवन वह शैव होगया था। हरिवर्माने अपने चाचा शिवस्थक कहने पर हल्सीका दानपत्र लिखाया था, जिसके द्वारा उसने अच्छशङ्गीमें एक गांव कूर्चक संघके श्री वारिषेणाचार्यको महतपूजाके लिये प्रदान किया था तथा महरिष्टि संघके चन्द्रक्षांत भाचार्यको भी भारद्वाजवंश के सेनापति सिंह के पुत्र मृगेश द्वारा निर्भित महत् मंदिरमे अभिषेक करने के लिये भूमिदान दिया था। सेन्द्रकवंशके नृप भानुशक्तिके कहने पर हरिवर्माने एक और दानपत्र लिखा था, जिसके द्वारा उन्होंने श्रमणाचार्य श्री धर्मनन्दिको महत्पूजाके लिये मारदे नामक ग्राम भेंट किया था। इस प्रकार उपर्युल्लिखित कदम्बवंशी गजाओंके शासनकालमें जैनधर्म अभ्युदयको प्राप्त हुमा
१-गैब०, पृ० २७९ व जैसाई०, पृष्ठ ४९. २-गैब०, पृ. २९., प्रो. भाण्डारकरने आचार्यका नाम वारिषेण लिखा है, जबकि प्रो. एस. भार० शर्मा उनका नाम वीरसेनाचार्य लिखते हैं । (जैसाई०, पृ. ५०). -जेसाई पृ. ५०.
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