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संक्षिप्त जैन इतिहास।
जैनधर्म और इतर उनसे मोर्चा लेना पड़ा था। उन्होंने अपने संपदाय। ग्रंथोंमें जैनोंका खूब ही उल्लेख किया है।
इस प्रकार जैनोंको उस समय अपने घरमें उत्पन्न मतविग्रहको शमन करनेके साथ ही विधर्मी लोगोंसे भी मुकाबिला लेना पड़ता था। इस मावश्यक्ताका अनुभव करके ही मालम होता है, उन्होंने अपना संगठन किया था। 'दिगम्बर दर्शन' नामक ग्रन्थसे प्रगट है कि सन् ४७० ई० में श्री पूज्यपादके शिष्य वज्रनन्दिने मदुरामें 'द्राविड संघ' की स्थापना की थी; जिसमें वे सब ही जैन साधु सम्मिलित हुये थे जो दक्षिण भारतमें
जैन धर्मका प्रचार करने में व्यस्त थे ।' ब्राह्मण लोग अपने साहित्य संघमें जैनोंको स्थान नहीं देते थे। इस अपमानको उस समयके विद्वान् जैन साधु सहन नहीं कर सके। उन्होंने अपना अलग 'संघ' स्थापित किया और धर्म एवं साहित्यकी उन्नतिमें संलम होगये । अजैनों पर इसका अच्छा प्रभाव पड़ा और जैनी अपनी संस्कृतिको सुरक्षित रखने और साहित्यको उन्नत बनाने में सफल हुये। अजैन शास्त्रकारोंने जैनधर्मका अध्ययन करना भावश्यक
समझा । सम्बन्दर और अप्पर एक समय तत्कालीन जैनधर्म । स्वयं जैनी थे । जैन धर्मका अध्ययन करके
उन्होंने अपने शास्त्रों में उसका खंडन किया
२-साइं०, भा० १ पृ. ५२. इन्दनन्दिजीने 'नीतिसार' में द्राविद संपकी गणना पंच जैनाभासों में की है। परन्तु शिलालेखीय पाक्षीसे उसका सम्माननीय होना प्रमाणित है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com