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पछव और कादम्ब राजवंश। [३३ श्वेतांबरोंमें अनेक संघ और गच्छ उत्पन्न होगए । उपरान्त यापनीयोंके प्रति जो कट्टरताका बर्ताव दिगंबर किया करते थे, उसमें भी शिथिलता आगई; यही कारण है कि उपरांतके शिलालेखोंमें यापनीय आचार्यों की गणना नन्दिगण मौर पुनाग-वृक्ष-मूलसंघमें की गई है। जैन संघके साधुओंमें जिस प्रकार साधु जीवनकी क्रियाओंको लेकर मतभेद और संघभेद हुये, उस प्रकार उनके भक्त श्रावक परस्पर अनैक्यमें गृसित हुये नहीं मिलते । श्रावकोंका मुख्य कर्तव्य दान देना और देवपूजा करना रहा है। इस समयके शिलालेखोंमें इन दो बातोंकी ही मुख्यता मिलती है । श्रावक धर्मायतनोंके लिये दान देते हुये मिलते हैं तथा जिनेन्द्र पूजाको प्रकर्षता भी वे दिया करते थे। दान, जिनेन्द्र पूजनके अतिरिक्त साधुओंको आहारदान देने के लिये भी किया जाता था और एक ही दातार उदारतापूर्वक सब ही सम्प्रदायों के साधुओंको दान देता था। श्रावकोंमें कट्टरता प्रतीत नहीं होती। उनकी पूजाके लिये जो मूर्तियां निर्मापित की जाती थीं वे प्रायः एक-समान दिगम्बर होती थीं। बेलगाममें यापनीय संघ द्वारा प्रतिष्ठित और स्थापित हुई जिन प्रतिमायें हैं, जिनकी पूजा आज भी दिगम्बरी निसंकोच भावसे कर रहे हैं।' उस समयके श्रावकोको धर्म प्रभावना ( महिमा ) का भी ध्यान था। नया मन्दिर बनवाने के साथ ही वे पुराने मंदिरोंका जीर्णोद्धार करते थे। अन धर्मका प्रकर्ष तबतक इतना अधिक था कि तिरुज्ञान
समन्दर और अपर सदृश विधर्मी भाचार्योको
१-पूर्व प्रमाण पृष्ट २२८.
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