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संक्षिप्त जैन इतिहास ।
शिवनटराजनकी कल्पनामें प्रकट होनेवाली नृत्य-ताल और प्रचण्ड स्फूर्तिको एक ही जगह चित्रित कर दिया है।' अन्दरके दाहिने खम्भेपर सम्भवतः राजा महेन्द्रवर्मनका चित्र था, जिसके कुछ निशान बाकी है । इस प्रकार पल्लवकालीन ललित कालका यह मंदिर एक नमूना है और दक्षिणके जैन मंदिरोंमें अपने ढंगका अकेला है। उधर पांड्यदेशमें कलभ्र राजवंशका भाश्रय पाकर जैनधर्म
एक समय खूब ही उन्नत हुआ था। ईस्वी कलभ्र । ५-६ वीं शताब्दिमें कलोंका भाक्रमण
दक्षिण भारत पर हुमा और उन्होंने चोळ, चेर एवं पांड्य राजाओंको परास्त करके समग्र गमिल देश पर अधिकार जमा लिया था। कहा जाता है कि कलभ्रगण कर्णाटक देशके मूलनिवासी 'कल्लर' जातिके लोग थे । पाण्ड्यराजाओंको जीतनेके कारण उन्होंने 'मारन' और 'नेदुमारन' विरुद धारण किये थे। इनके अतिरिक्त उनके दो विरूद 'कलकत्वन' और मुत्तुरैयन (तीन देशोंके स्वामी) भी थे। 'पेरियपुराणम्' नामक ग्रन्थमें उन्हें कर्णाटक देशका राजा लिखा है। निस्सन्देह उनका राजशासन तीनों ही चेर, चोल, पाठय देशों पर निर्वाध चलता था। जैसे ही वह तामिक देशमें मधिकृत हुये, कलोने जैन धर्मको अपना लिया। उस समय
३-बोभ०, अंक ६ पृष्ठ ७-८. श्री रामचन्दन् महोदयने यह वर्षन लिखा है और उल्लिखित तामिल प्रयके आधारसे तागवको शमवशरणकी द्वितीय भूमि बताया है। संभवतः यह ठीक है, परंतु इस तालाबमें भक्तजन स्नानादि करते थे या नहीं यह विचारणीय है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com