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महोपाध्याय समयसुन्दर
के निवासी हो और वहीं दीक्षा हुई हो! सं० १६२८ के सांभलि वाले पत्र में आपका नामोल्लेख है अतः सं० १६२८ से १६४० के मध्यकाल में ही आपका स्वर्गवास हुआ हो, ऐसा प्रतीत होता है। आपकी जो चरण पादुका* नाल (बीकानेर) दादावाड़ी में स्थित है जिसके निर्मापक रीहड़ गोत्रीय हैं, सभव है ये
आपके ही संबंधी हों! पादुका के प्रतिष्ठा-कारक हैं आचार्य जिनचन्द्रसूरि और जिनकी उपाधि युगप्रधान सूचित की गई है जो आपको सं० १६४६ में प्राप्त हुई थी। अतः पादुका की प्रतिष्ठा इसके बाद ही हुई है।
श्री देशाई ने सकलचन्द्र गणि के सम्बन्ध में अपने लेख में लिखा है।:
__ "सकलचन्द्र गणि-तेश्रो विद्वान पंडित अने शिल्पशास्त्रमा कुशल हता। प्रतिष्ठाकल्प श्लोक (११०००) जिनबल्लभसूरि कृत धर्मशिक्षा पर वृत्ति (पत्र १२८), अने प्राकृ मां हिताचरण नामना
औपदेशिक ग्रन्थ पर वृत्ति १२४२६ श्लोकमां सं०१६३० मां रचेल छे"
जो वस्तुतः भ्रमपूर्ण है। इन ग्रन्थों के रचयिता पं० सकल* " .............. 'वर्षे ....... सुदि ३ दिने शनौ सिद्धियोगे
श्री जिनचन्द्रसूरि शिष्यमुख्य पं० सकल......."चरण पादुका श्री खरतरगणाधीश्वर युगप्रधानप्रभु श्री..........श्रीजिनचन्द्र
सूरिभिः प्रतिष्ठितं ....."हड़ जयवंत लूणाभ्यां कारिते ॥" . + कविवर समयसुन्दर पृ. १६ टि० १३. * जिनरत्नकोष और जैन ग्रन्थावली में यही उल्लेख है। किन्तु ___ मेरे नम्र विचारानुसार विजयचन्द्रसूरि प्रणीत धर्मशिक्षा पर
वृत्ति होगी न कि जिनवल्लभीय धर्मशिक्षा पर । विशेष विचार तो प्रति सन्मुख रहने पर ही हो सकता है । अस्तु,
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