Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चन
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मुनिश्री को अधिकाधिक सहयोग दें। साथ ही यह भी श्री पुष्करमुनि जी की यह बड़ी विशेषता है कि उन्होंने मेरी भावना है कि साहित्य का अत्यधिक प्रचार हो, जैने- अपने शिष्यों को ही नहीं, अपितु अपनी शिष्याओं को भी तरों में जैन धर्म का प्रचार किया जाय और यह महत्त्व- ज्ञान के क्षेत्र में बहुत आगे बढ़ाया है। मेरी यह इच्छा है पूर्ण कार्य केवल श्रमण या श्रमणियाँ नहीं कर सकतीं, कि साध्वियों के द्वारा श्राविका समुदाय में ज्ञान की जागृति इसके लिये श्रावकों के सहयोग की भी अपेक्षा है । आचार- की जाय । और जब श्राविका समाज प्रबुद्ध होगा, भावी निष्ठ विद्वान् मुनियों के संपर्क में यदि जैनेतर विद्वान् पीढ़ी में धार्मिक संस्कार अधिक विकसित होंगे और जैन आयेंगे तो जो जैनधर्म के प्रति उनके अन्तर्मानस में संघ सर्वतोमुखी उन्नति कर सकेगा। भ्रांतियाँ हैं, उनका निरसन होगा और उनके संपर्क से दीक्षा स्वर्ण जयन्ती के सुनहरे अवसर पर मेरी हार्दिक श्रमणों की ज्ञान-संपदा में भी अभिवृद्धि होगी और उनकी मंगल कामना है कि हे युगपुरुष, हे युगावतार, तुम युगदृष्टि विशाल बनेगी।
युग जीओ, और जैन धर्म की महान् प्रभावना करो।
तव का जो प्रभाव अपने
- ऐसी स्थिति में पूज्य
है वह उनके और
अध्यात्मरसिक-पुष्कर मुनिजी
श्री दलसुख मालवणिया (निदेशक, ला० द० भा० सं० विद्यामन्दिर, अहमदाबाद) पूज्य पुष्कर मुनिजी से अहमदाबाद में चातुर्मास में देखी जाती है। आप समाज की व्याख्यान और साहित्य और पूना में जैनसंगोष्ठी के अवसर पर और बेंगलोर निर्माण के द्वारा जो सेवा करते हैं-वह प्रशंसनीय है। वर्षावास में मिलना हुआ, बहुत वर्षों का परिचय नहीं, जैन समाज में प्रभावशाली ऐसे कई श्रमण हैं किन्तु किन्तु थोड़े ही परिचय में उनके व्यक्तित्व का जो प्रभाव अपने प्रभाव का उपयोग लोक-कल्याण में करने वाले मन पर पड़ा है, वह अमिट है। प्रखरवक्ता और जैन विरल हैं-- ऐसी स्थिति में पूज्य पुष्कर मुनिजी लोकसमाज में प्रभावशाली होने पर भी उनमें जो नम्रता मैंने कल्याण की भावना लेकर जो चले हैं वह उनके और देखी, वह दुर्लभ है। विद्वान् तो वे हैं ही। साथ ही उनकी सामान्य लोक के हित में है। शिष्य मण्डली में विद्वत्ता बढ़े यह उनकी सतत चिन्ता है। मैंने देखा है कि समाज-सुधार और श्रमणों के वे स्वयं बड़े हैं । किन्तु अपने शिष्यों में भी बड़प्पन बड़े सुधार के विषय में जो भी कहा जाये उसे वे शान्ति से उसका निदर्शन उनसे मिलने पर हो जाता है। वे अपना सुनते हैं। प्रतिकार नहीं करते। मौन ही उनका उत्तर प्रभाव नहीं, किन्तु अपने शिष्यों का प्रभाव बढ़े ऐसा सोचते होता है। आशा रखी जाय कि वे श्रमण संघ के हैं। उनसे जब भी मिला तब उन्होंने मुझे पूज्य देवेन्द्र रूढ़िगत नियमों में आधुनिक-काल के अनुरूप संशोधन मुनिजी आदि के पास भेजा। यह उनका ही बड़प्पन था कराने के पक्ष में कुछ करेंगे । ऐसा होने से उनके व्यक्तित्व जो अपने शिष्यों के गौरव में अपना गौरव देखते हैं। का और भी प्रभाव होगा और सामान्य-जन और श्रमण
उनमें योग के प्रति आस्था है । और वे स्वयं योग के संघ को उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व से लाभ होगा। यदि विषय में केवल जानकारी ही नहीं रखते, किन्तु उसमें समयानुकूल परिवर्तन कराने में उनमें वृत्ति बढ़ी तो एक क्रियाशील भी हैं। अध्यात्मरस उनका निजी रस है। दिन वह आयेगा जब वे सच्चे हीरे की तरह समाज में अध्यात्म की कोई भी बात चले तो उनसे कुछ नया ही चमकेंगे । विद्वत्ता है, व्यक्तित्व है, प्रभाव है, सौजन्य है, जानने को मिलता है। पूर्वाश्रम में वे ब्राह्मण थे अतएव योग है, और अध्यात्म है, तो फिर क्या कमी रह गई जो विद्यारस होना स्वाभाविक ही है। यह रस जैन साधुओं में समाज को नई दिशा देने में वे अपना असामर्थ्य देखें। विरल है । ऐसी स्थिति में उनके प्रति विद्वज्जनों और मेरी तो यह आशा ही नहीं, पक्का विश्वास है कि वे सामान्यजनों का आदर बढ़े यह कोई आश्चर्य की बात समाज में आवश्यक संशोधन कराने में अग्रसर होकर नहीं । प्रतिष्ठित साधु होने पर भी अभिमान उनमें देखा अपना नाम अमर करेंगे । वे दीर्घायु हों और इस कार्य को नहीं जाता । सज्जनता उनकी अपनी ही है। जो भी एक अपना लें यही भावना करता है। बार मिले वह उनका हो जाय-यह आकर्षण-शक्ति उनमें
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