Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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है । मन मनुष्य के लिए सबसे बड़ा बन्धन भी है और मन ही मनुष्य के लिए मोक्ष का द्वार है ।" मन के कारण ही आत्मा परमात्मा नहीं हो सकता और मन से ही मनुष्य को मुक्ति का मार्ग प्राप्त होता है । "
योग और मन : परस्पर एक-दूसरे के पूरक
योग और मन
कहने की आवश्यकता नहीं कि मन की यह पहेली विचित्र अवश्य है, किन्तु अनबूझ तथा अनुत्तरित नहीं है । इस पहेली का उत्तर एवं समाधान सम्भव है। योग मन की इस पहेली का सही उत्तर एवं समुचित समाधान प्रस्तुत करता है ।
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वस्तुतः योग और मन परस्पर अनुस्यूत हैं, अत्यन्त गहरे में एक-दूसरे से सम्बद्ध हैं। योग का आधार है मन और मन का समाधान है योग । इस प्रकार योग और मन परस्पर एक-दूसरे के पूरक हैं। मन की वृत्तियों का निरोध योग है । १२ मन की एकाग्रता एवं स्थिरता ही योग का प्रथम उद्देश्य है । वृत्तियों की चाप से मन चंचल एवं अस्थिर होता है और चंचल तथा अस्थिर मन ही दुःख का मूल कारण है । जीवन के सारे ताप आताप संताप चंचल मन से ही उपजते हैं। जीवन की सारी अशांति, आकुलता व्याकुलता, अव्यवस्था, अस्तव्यस्तता, विशृंखलता, अराजकता तथा तनावपूर्ण स्थिति मन की चपलता एवं अस्थिरता से ही उत्पन्न होती हैं । योग निग्रह एवं निरोध के माध्यम से मन के भीतर से विष-तत्त्व खींच लेता है और स्वस्थ, सुन्दर, स्थिर, शांत तथा अमृतोपम मन का सृजन करता है-मनुष्य के लिए अमृत का द्वार खोल देता है ।
अधोवाही मन दुःख को निमन्त्रण देता है। मनुष्य का मन उभयवाही है - अधोवाही भी और ऊर्ध्ववाही भी । जब मनुष्य का मन अधोवाही होता है, मन की शक्ति का प्रवाह नीचे की ओर बहता है, संसार के क्षुद्र भोगों की ओर बहता है, माया-मोह की ओर बहता है,' भौतिक पदार्थों और पार्थिव एषणाओं-लालसाओं तथा कामनाओं-कल्पनाओं की ओर बहता है, यश-प्रतिष्ठा तथा मान-सम्मान की ओर बहता है तो मनुष्य जीवन के वास्तविक लक्ष्य से भूल-भटक जाता है । सांसारिक पदार्थों की उपलब्धि और भोगों की प्राप्ति ही उसके जीवन का एकमात्र ध्येय बन जाता है । फलतः वह पतन के गहरे गर्त में गिर जाता है। अधोवाही मन मनुष्य को मृत्यु की ओर ले जाता है, नरक की ओर ले जाता है, दुःख को निमन्त्रण देता है, पीड़ा देता है, तापआताप संताप की आग में जलाता है। मनुष्य का समग्र जीवन दुःख और पीड़ा से भर जाता है। क्षण-भर का सुखभोग और चिरकाल का दुःख कितना भयावह परिणाम है इन भोगों का ।
योग मन को नयी दिशा देता है। संसार की सारी नदियाँ एकमुखी है—एक ओर को बहती हैं किन्तु मनुष्य के मन की नदी उभयमुखी है, दोनों ओर को बहती है । वह कल्याण- पुण्य की ओर बहती है और पाप की ओर भी बहती है । * शुभ की ओर भी बहती है, अशुभ की ओर भी बहती है, धर्म की ओर भी बहती है, अधर्म की ओर भी बहती है, संसार की ओर भी बहती है, मोक्ष की ओर भी बहती है, नीचे की ओर भी बहती है, ऊपर की ओर भी बहती है, बाहर की ओर भी बहती है, भीतर की ओर भी बहती है ।
योग मन की नदी के बहाव को गलत दिशा से एक नयी और सही दिशा की ओर मोड़ देता है, मन के अधोबाही शक्ति प्रवाह को ऊर्ध्ववाही बना देता है, अधोमुखी से ऊर्ध्वमुखी कर देता है। दिशा बदलने से शक्ति का बहाव अन्तर्मख हो जाता है। अतः वह अब बाहर की ओर न बहकर भीतर की ओर बहता है, आत्मा की ओर बहता है, परमात्मा की ओर बहता है, मोक्ष की ओर बहता है, संयम तप की ओर बहता है, त्याग वैराग्य की ओर बहता है, ध्यानसमाधि की ओर बहता है । यह मन की शक्ति का ऊर्ध्वकरण है । मन की शक्ति के इस ऊर्ध्वकरण का नाम ही योग है । मनुष्य के मन की शक्ति का मूल स्रोत जब किसी उच्चतम ध्येय तथा पवित्रतम आदर्श के लिए प्रवाहित होता है तो आत्मा के लिए श्रेय का द्वार खुल जाता है। मन की शक्ति का यह अन्तर्मुखी बहाव जीवन में सुख लाता है, स्वर्ग लाता है, आनन्द लाता हैं, मोक्ष लाता है। शक्तियाँ भिन्न-भिन्न नहीं हैं, केवल दिशाएँ भिन्न हैं । मात्र अधोगमन और ऊर्ध्वगमन का अन्तर है। सीढ़ियाँ वही हैं। जिस व्यक्ति का मुँह नीचे की ओर है, वह नीचे पहुँच जाता है और जिसका मुख ऊपर की ओर होता है, वह ऊपर चढ़ता जाता है, शिखर पर पहुँच जाता है । शक्ति का बहाव किस ओर है - सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है । शक्ति का अधोगमन भोग है और ऊर्ध्वगमन योग ।
योग एक अध्यात्म-साधना है, दुःख से मुक्त होने के लिए। योग एक पहुँचने के लिए। योग एक धर्मकला है, चंचल एवं अस्थिर मन को साधने के लिए।
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योग मन का कायाकल्प करता है। अन्तर्यात्रा है, भीतर अपने आप तक
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