Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड
तथा तन-मन की विशुद्धि भी नहीं होती। यह कार्य तो प्राणोत्थान द्वारा जब कुण्डलिनी जाग्रत होती है तभी होता है। प्राणोत्थान निर्दोष और प्रशंसनीय ही है, क्योंकि इसके बिना कुण्डलिनी को जाग्रत करने का अन्य कोई भी उपाय नहीं है।
जन्मान्ध को रंग-परिचय देने का और पूर्ण बधिर को स्वर-परिचय देने का कार्य जितना कठिन है उसकी अपेक्षा अनेकगुना कठिन कार्य अयोगी को कुण्डलिनी का परिचय देने का है। कुण्डलिनी के अनेक स्वरूप हैं, तथापि इन समस्त स्वरूपों का समावेश उसके स्थूल एवं सूक्ष्म-इन दो स्वरूपों में किया जा सकता है। स्थूलकुण्डलिनी का स्थान शरीर में मूलाधार और स्वाधिष्ठान चक्र की सीमा में आधुनिक शरीरविज्ञान के अनुसार विसर्जनतन्त्र और प्रजननतन्त्र की सीमा में आया हुआ है। उसके द्वारा सबीज समाधि सिद्ध होती है। सूक्ष्मकुण्डलिनी शक्ति अथवा प्राणरूप है । उसके द्वारा निर्बीज समाधि सिद्ध होती है। योगज्ञ स्थूलकुण्डलिनी के रूप में शिव की और सूक्ष्मकुण्डलिनी के रूप में शक्ति की भावना करते हैं, इस प्रयोजन से उनके संयुक्त स्वरूप को अर्धनारीश्वर भी कहा जाता है । शिव के आभ्यन्तर शक्ति और शक्ति के आभ्यन्तर शिव हैं। दोनों में चन्द्र-चन्द्रिका सम्बन्ध है । प्रसार में शक्ति और संकोच में शिव दिखायी देते हैं।
जब गुरुकृपा द्वारा कुण्डलिनी जाग्रत होती है तब शरीरस्थ चक्रों एवं ग्रन्थियों का भेदन होता है।"
यहाँ एक बात उल्लेखनीय है कि इन्द्रियनिग्रह में होने वाली स्वाभाविक शारीरिक क्रियाएँ कर्मयोग की परिभाषा में 'क्रियायोग' कहलाती हैं। इसमें कर्मदृष्टि की प्रधानता होने से कुण्डलिनी का स्वरूप कर्मदृष्टि से अभिव्यक्त किया जाता है। वही क्रियायोग भक्तियोग की परिभाषा में 'भगवान की लीला' कहलाता है। इसमें भावदृष्टि की प्रधानता होने से कुण्डलिनी को आराध्य देव अथवा देवी के स्वरूप में स्वीकृत किया जाता है। भाव द्वारा सब कुछ प्राप्त होता है, भाव द्वारा देवदर्शन होता है और भाव द्वारा ही सर्वोत्तम ज्ञान की उपलब्धि होती है ।२० "अगणित जप से, होम से और काया को अत्यन्त कष्ट देने से कुछ भी प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि बिना भाव के देव, यन्त्र और मन्त्र फल प्रदान नहीं करते हैं ।"२१ वही क्रियायोग अथवा भगवान की लीला ज्ञानयोग की परिभाषा में "प्रकृति की लीला" है। इसमें तत्त्वदृष्टि की प्रधानता होने से कुण्डलिनी को तत्त्व के रूप में स्वीकृत किया जाता है । ५. अधोमुखी एवं ऊर्ध्वमुखी कुण्डलिनी
__ कुण्डलिनी के दो भेद हैं-सुप्त एवं जाग्रत । जब तक मनुष्य-शरीर में कुण्डलिनी सुप्त रहती है तब तक अज्ञान का घोर अन्धकार विनष्ट नहीं होता, सत्य का साक्षात्कार नहीं होता और जन्म-मृत्यु का बन्धन कटकर अमरत्व की उपलब्धि भी नहीं होती।
मूलाधारस्थ अधोमुखी कुण्डलिनी को 'अधःशक्ति' भी कहते हैं। असंख्य साधक विविध योगों के विविध अनुष्ठान द्वारा इस "कामपीठ" भूमिका में प्रविष्ट तो हो जाते हैं किन्तु उनको उसके यथार्थ स्वरूप का बोध न होने से वह उनके पतन का कारण बन जाती है। यह भूमिका वाममार्ग का उद्गम स्थान है।
अधोमुखी कुण्डलिनी को जगाना साधारण कार्य है, किन्तु उसको ऊर्ध्वमुखी बनाना असाधारण कार्य है। इसमें सतत साधना की आवश्यकता रहती है। कुण्डलिनी को उत्तेजित करने के बाद निर्बल साधक भयभीत हो जाता है, क्योंकि उसके योगमार्ग में विषयवासना का महासागर उमड़ आता है। उसको पार करना यानी वीर्य को ऊर्ध्वगामी बनाकर ऊर्ध्वरेता बनना, यह महाभारत युद्ध से भी अधिक कठिन है।
मूलाधार और स्वाधिष्ठान चक्र को भेदने पर ही योग में प्रवेश होता है । ये दोनों चक्र भोग-केन्द्र भी हैं और योग-केन्द्र भी। जैसे सीढ़ी पतन-उत्थान का कारण है वैसे ये दोनों चक्र भी पतन-उत्थान के कारण हैं। जब तक पूर्वयोग, तारकयोग, सम्प्रज्ञातयोग, सबीजयोग, सविकल्पयोग अथवा इन्द्रियनिग्रह सिद्ध नहीं होता, तब तक भोग-केन्द्र में ही निरन्तर क्रिया चलती रहती है, फलतः वही ध्यान का मध्यबिन्दु बना रहता है । जब प्राण अपान पर विजय पा लेता है
और आज्ञाचक्र ध्यान का बिन्दु बन जाता है तब उस ऊर्ध्वरेता योगी को योगाग्निमय देह, ऋतंभरा प्रज्ञा और उत्तर योग, अमनस्कयोग, राजयोग, असंप्रज्ञातयोग, निर्बीजयोग, निर्विकल्पयोग, अथवा मनोनिग्रह की उपलब्धि होती है । तन्त्र में कहा है-योगी मनुष्य नहीं, ईश्वर ही है । २२
शिवजी ऊर्ध्वरेता हैं, अतः उनका प्रतीक ऊर्ध्वलिंग है। लिंग के पूर्व में शक्ति होती है और उत्तर में कूर्म । शक्ति लक्ष्य का और कूर्म संयम का प्रतीक है। श्री कृष्ण भी ऊर्ध्वरेता हैं, वे कालियनाग के फन पर जिस मुद्रा में खड़े हैं उसको आकर्षणीमुद्रा, मोहनमुद्रा, वैष्णवी मुद्रा, योनिमुद्रा अथवा लोपामुद्रा कहते हैं। श्रीकृष्ण के करकमलों में वंशी है, वह अनाहतनाद की द्योतक है।।
नाभिस्थ मध्यमा कुण्डलिनी बोधरूप होती है। उस भूमिका में साधक के वैराग्य की वृद्धि होती है और
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