Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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प्राणायाम : एक चिन्तन
२०६
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है।२२ जिस स्थान पर रोग उत्पन्न हुआ हो उसकी शांति के लिए उस स्थान पर प्राणादि वायु को रोकना चाहिए।" उस समय प्रथम पूरक प्राणायाम करके उस भाग में कुम्भक प्राणायाम करना चाहिए।
पैर के अंगुष्ठ, एडी, जंघा, घुटना, उरू, अपान, उपस्थ में अनुक्रम से वायु को धारणा करने से गति में शीघ्रता और बल की प्राप्ति होती है ।२४ नाभि में वायु को धारण करने से ज्वर नष्ट हो जाता है। जठर में धारण करने से मल शुद्धि होती है और शरीर शुद्ध होता है। हृदय में धारण करने से रोग और वृद्धावस्था नहीं आती। यदि वृद्धावस्था आ गयी तो उस समय उसके शरीर में नौजवानों की-सी स्फूर्ति रहती है ।२५ कंठ में वायु को धारण करने से भूख-प्यास नहीं लगती है। यदि कोई व्यक्ति क्षुधा-पिपासा से पीड़ित हो तो उसकी क्षुधा और पिपासा मिट जाती है । जिह्वा के अग्रभाग पर वायु का निरोध करने से रस ज्ञान की वृद्धि होती है। नासिका के अग्रभाग पर वायु को रोकने से गन्ध का परिज्ञान होता है। चक्षु में धारण करने से रूपज्ञान की वृद्धि होती है। कपाल व मस्तिष्क में वायु को धारण करने से कपाल-मस्तिष्क सम्बन्धी रोग नष्ट हो जाते हैं तथा क्रोध का उपशमन होता है। ब्रह्मरन्ध्र में वायु को रोकने से साक्षात् परमात्मा के दर्शन होते है ।२० रेचक प्राणायाम से उदर की व्याधि व कफ नष्ट होता है। पूरक प्राणायाम से शरीर पुष्ट होता है, व्याधि नष्ट होती है।२८ कुम्भक प्राणायाम करने से हृदयकमल उसी क्षण विकसित हो जाता है। हृदयग्रंथि का भेदन होने से बल की अभिवृद्धि होती है, वायु में स्थिरता आती है। प्रत्याहार करने से शरीर में बल और तेज की वृद्धि होती है। शान्त-प्राणायाम से वात, पित्त, कफ या सन्निपात की व्याधि नष्ट होती है। उत्तर और अधर प्राणायाम कुम्भक को स्थिर बनाते हैं।
सारांश यह है कि नियुक्ति आदि में प्राणायाम का निषेध किया गया, पर जैन साधना में कायोत्सर्ग का विशिष्ट स्थान रहा है। दशवकालिक में अनेक बार कायोत्सर्ग करने का विधान है। कायोत्सर्ग में कालमान श्वासोच्छ्वास से ही गिना गया है। आचार्य भद्रबाहु ने देवसिक कायोत्सर्ग में सौ उच्छ्वास, रात्रिक कायोत्सर्ग में पचास, पाक्षिक में ३००, चातुर्मासिक में ५००, और सांवत्सरिक कायोत्सर्ग में १००८ उच्छ्वास का विधान किया है। अन्य अनेक अवसरों पर भी कायोत्सर्ग का विधान है । श्वासोच्छ्वास का कालमान एक चरण माना गया है । श्वासोच्छ्वास को सूक्ष्म प्रक्रियाओं को जैन साहित्य में जो स्वीकृति है वह एक प्रकार से प्राणायाम की ही स्वीकृति है। इस दृष्टि से जैन परम्परा में भी प्राणायाम स्वीकार किया गया है। जैन साधना में जो कायोत्सर्ग की साधना है वह प्राणायाम से युक्त है। जैन आगमों में दृष्टिवाद जो बारहवाँ अंग है, उसमें एक विभाग पूर्व है। पूर्व का बारहवाँ विभाग प्राणायुपर्व है। कषाय पाहुड में उस पूर्व का नाम प्राणवायु कहा है जिसमें प्राण और अपान का विभाग विस्तार से निरूपित है। प्राणायु या प्राणवायुपूर्व के विषय वर्णन से यह परिज्ञात होता है कि जैन मनीषी प्राणायाम से सम्यक् प्रचार से परिचित थे। सन्दर्भ तथा सन्दर्भ स्थल : १ योग सूत्र २-२६
१६ वही, ५/१६; ५/१७ । २ (क) आवश्यकनियुक्ति, गाथा १५२४ ।
१७ वही, ५/१८ । (ख) आवश्यकचूणि-१५२४ चूणि ।
१८ वही, ५/२० । ३ योगशास्त्र ६-४; ५.५।
१६ वही, ५/१६ । ४ जैनदृष्ट्या परीक्षितं पातंजलि योगदर्शनम्-२-५५ ।
२० वही, ५/२७-३१। ५ स्थानांग ७ ।
२१ वही, ५/२। ६ आवश्यकनियुक्ति अवचूणि गाथा १५२४ ।
२२ वही, ५/२४ ॥ ७ रेचकः पूरकश्चैव कुम्भकश्चेति स त्रिधा ।-योगशास्त्र प्र. ५, श्लो. ४ २३ वही, ५/२५ । ८ योगशास्त्र ५/६ ।
२४ वही, ५/३२। है वही, ५/७ ।
२५ वही, ५/३३ । १० वही, ५/७ ।
२६ वही, ५/३४ । ११ वही, ५/५॥
२७ वही, ५/३४ । १२ वही, ५/८ ।
२८ वही, ५/१०। १३ वही, ५/८।
२६ वही, ५/११ । १४ वही, ५/६ ।
३० वही, ५/१२ । १५ वही, ५/१४ ।
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