Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 1111
________________ २०८ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड इन वायुओं को नियन्त्रित करने के लिए प्राणायाम के समय तत्सम्बन्धी बीजाक्षरों का ध्यान करना चाहिए, ऐसा आचार्यों ने बताया है। ये बीजाक्षर इस प्रकार हैं प्राणवायु वायु निवास बीजाक्षर प्राण अपान समान उदान व्यान नासिका का अग्रभाग, हृदय, नाभि, पैर के अंगुष्ठ पर्यन्त गर्दन के पीछे की नाडी, पीठ, गुदा, एड़ी हृदय, नाभि, सभी संधियाँ हृदय, कंठ, तालु, भृकुटि, मस्तक त्वचा का सर्व भाग हरा काला श्वेत लाल इन्द्रधनुषो नासिका प्रभृति स्थानों से पुनः पुनः वायु का पूरण व रेचन करने से गमागम प्रयोग होता है और उसका अवरोध अर्थात् कुम्भक करने से धारण प्रयोग होता है। नासिका से बाहर के पवन को अन्दर खींचकर उसे हृदय में स्थापित करना चाहिए। वह यदि पुनः-पुनः दूसरे स्थान पर जाता है तो उसे पुनः-पुन: निरोध करके वश में करना चाहिए। वायु को नियन्त्रित करने का यह उपाय प्रत्येक वायु के लिए उपयोगी है। वायु के निवास के जो-जो स्थान आचार्यों ने बतलाये हैं वहां पर प्रथम पूरक प्राणायाम करना चाहिए अर्थात् नासिका द्वारा बाहर से वायु को अन्दर खींचकर उस स्थान पर रोकना चाहिए। ऐसा करने से खींचने की व रोकने की दोनों क्रियाएँ स्वतः बन्द हो जायेंगी और वह वायु उस स्थान पर नियत समय तक स्थिर रहेगा। यदि कभी वह वायु बलात् दूसरे स्थान पर चला जाय तो उसे पुनः पुनः रोककर और कुछ समय तक रेचक प्राणायाम अर्थात् नासिका के एक छिद्र से शनैः-शनैः उसे बाहर निकालना चाहिए और पुन: उसी नासिका छिद्र से कुम्भक प्राणायाम करना चाहिए। इससे वायु अपने अधिकार में - रहती है। वीरासन, वज्रासन, पद्मासन आदि किसी भी आसन में अवस्थित होकर शनैः-शनैः पवन का रेचन करे । उसे पुनः नासिका के बायें छिद्र से अन्दर खींचे और पैर के अंगूठे तक ले जाये। मन को भी पैर के अंगुष्ठ में निरोध करे। फिर अनुक्रम से पवन के साथ पैर के तल भाग, एड़ी, जाँघ, जानु, उरू, अपान, उपस्थ, नाभि, पेट, हृदय, कंठ में धारण करे और उसे ब्रह्मरन्ध्र तक ले जाय और पुनः उसी क्रम से उसे लौटाये और फिर पैर के अंगूठे में ले आये। इसके बाद वहां से उसे नाभि-कमल में ले जाकर वायु का रेचन करे। . यह नियम है कि जहाँ मन है वहाँ पर पवन है और जहाँ पर पवन है वहाँ मन है। अतः समान क्रिया वाले मन और पवन क्षीर-नीर की भाँति परस्पर मिले हुए हैं। मन और पवन इन दोनों में से एक के नष्ट होने पर दूसरा भी नष्ट हो जाता है। आत्मा में उपयोग को अवस्थित करने से श्वास शनैः-शनैः चलने लगता है। श्वास के शनैः-शनैः चलने से मन की प्रवृत्ति भी मन्द पड़ जाती है। कुछ व्यक्ति ध्यान की अवस्था में मन को स्थिर करने का प्रयास करते हैं, पर प्राणों पर विजय न होने से वह इतस्ततः परिभ्रमण करता है। जब पवन पर विजय होती है तो मन पर स्वतः विजय हो जाती है। प्राणवायु को जीतने से जठराग्नि प्रबल होती है। यह सभी जानते हैं कि पवन ही जीवन है। भोजन और पानी के बिना महीनों तक प्राणी जीवित रह सकता है। किन्तु श्वास के बिना नहीं। हम श्वास लेते हैं जिससे वायु अन्दर जाती है। वायु में आक्सीजन रहती है जिसकी शरीर को अत्यधिक आवश्यकता है। वायु में स्थित आक्सीजन ही जीवन का आधार है। यदि वायु में आक्सीजन न हो तो जीवन निश्शेष हो जायेगा। प्राणवायु पर ही सभी वायु ठहरी हुई हैं। इससे शरीर में लघुता आती है। यदि शरीर के किसी भी अवयव में कहीं भी घाव हो जाय तो समानवायु और अपान वायु पर नियन्त्रण करने से जख्म शीघ्र भर जाते हैं। टूटी हुई हड्डियाँ भी जुड़ जाती हैं। जठराग्नि प्रदीप्त हो जाती है। मल-मूत्र कम हो जाते हैं तथा व्याधियाँ नष्ट हो जाती हैं।२१ उदानवायु पर विजय प्राप्त करने से मानव में ऐसी शक्ति समुत्पन्न होती है कि वह चाहे तो मृत्यु के समय अचि-मार्ग अथवा दशम द्वार से प्राण त्याग सकता है। न उसे पानी से किसी प्रकार की बाधा ही उपस्थित हो सकती है और न कंटकादि कष्ट ही। व्यानवायु की विजय से शरीर पर सर्दी-गर्मी का असर नहीं होता, शरीर में अपूर्व तेज की वृद्धि होती है और निरोगता प्राप्त होती ० ० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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