Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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कुण्डलिनी योग : एक विश्लेषण
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शिवजी का एक नाम है-'नटेश्वर' और श्रीकृष्ण का एक नाम है 'नटवर'। दोनों के ये एकार्थी नाम सार्थक हैं। उभय नृत्यकार भी हैं और संगीतकार भी। शिवजी का 'ताण्डवनत्य' और श्रीकृष्ण का 'रासनृत्य' सुप्रसिद्ध है।
योग द्वारा अनाहतनाद की उपलब्धि होती है। वही शक्ति है । दुर्गा, राधा इत्यादि देवियों को भी नृत्य और संगीत अतीव प्रिय है, क्योंकि वही उनका स्वरूप है।
(५) गन्ध का प्रत्याहार-गन्ध की लोलुपता भी अति प्रबल होती है। वह भी मानव को विपरीत पथ का प्रवासी बना देती है । साधक को इस गन्ध के सागर को भी विवेकबुद्धि की सहायता द्वारा तैरना पड़ता है।
स्वानुकूल आसन पर स्थित होकर नासिका के दक्षिणरन्ध्र को दक्षिण हाथ के अंगूठे से दबाकर वामरन्ध्र से वायु को यथाशक्ति धीरे-धीरे भीतर आकर्षित करना चाहिये। जब वह सम्पूर्ण आकर्षित हो जाय तब वाम छिद्र को दक्षिण हाथ की तर्जनी और मध्यमा अंगलियों से दबाकर आभ्यन्तर कुम्भक करना चाहिए। यथाशक्ति कुम्भक करके दक्षिण रन्ध्र द्वारा वायु को धीरे-धीरे बाहर निकालना चाहिए । इस प्राणायाम को अनुलोम-विलोम प्राणायाम कहते हैं। उपर्युक्त क्रमानुसार प्राणायाम करने से उसकी एक आवृत्ति होती है। प्राणायाम करते समय इष्टमन्त्र का मानसिक जप करना चाहिए। इस गन्ध के प्रत्याहार से साधक को दिव्यगन्ध की अनुभूति होती है। इस प्रक्रिया को अजपाजप, हंसयोग, हठयोग अथवा प्राणोपासना भी कहते हैं।
अजपाजप का एक विशिष्ट प्रकार और भी है। उसकी विधि यह है। सिर, ग्रीवा और काया को सीधा रखकर स्वानुकूल आसन पर बैठना और दृष्टि को नासाग्र पर संस्थापित करके श्वासोच्छ्वास की गति का निरीक्षण करते रहना। जब दोनों नासापुटों द्वारा वायु भीतर प्रवेश करे तब मन में 'ओम्' बोलना और बाहर निकले तब 'एक' । इस प्रकार श्वास की गिनती स्वस्थचित्त से करते रहना। यह क्रिया करते समय यह भी देखना कि वायु जब भीतर प्रवेश करती है तब वह किन-किन अवयवों को प्रभावित करती है । हाँ, यह सत्य है कि आरम्भ में वायु की गति उथली है या गहरी यह एकदम ज्ञात नहीं होगा किन्तु जैसे-जैसे अभ्यास बढ़ता जायेगा वैसे-वैसे निरीक्षण स्थिर और सूक्ष्म होता जायेगा और वायु की गति को समझने में कठिनता प्रतीत नहीं होगी। यदि श्वासों की संख्याओं का मध्य में विस्मरण हो जाय तो ओम् एक, ओम् दो, ओम् तीन-इस प्रकार पुनः गिनती करना चाहिए। जैसे-जैसे मन की एकाग्रता बढ़ती जायेगी वैसे-वैसे गिनती का अवलम्बन अपने आप ही छूटता जायेगा और तन्द्रा आने लगेगी। 'ओम्' मन्त्र के स्थान पर राम, सोऽहम्, अहम, इत्यादि मन्त्रों का भी प्रयोग हो सकता है। इस प्रक्रिया को अजपागायत्री, अजपाजप, हंसमन्त्र अथवा जप कहते हैं । _ योग के अन्य साधनों की अपेक्षा प्राणायाम द्वारा अति शीघ्र प्रगति हो सकती है, किन्तु इसमें योग पारंगत गुरु के मार्गदर्शन की अनिवार्य आवश्यकता रहती है। उसके अभाव में साधक अगणित उपद्रवों से घिर सकता है।
भक्तिमार्गी साधक भजन-कीर्तन करता है और पण्डित शास्त्रों एवं शास्त्र में वर्णित मन्त्रों का पाठ करता है इसमें भी प्राणसंयम होता है, अतः इस प्रत्याहार का समावेश गन्ध-प्रत्याहार में किया जाता है।
ध्यान के अभ्यास से भी कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत हो जाती है। योगपारंगत बुद्धिमान आचार्य सकाम साधकों को अचलध्यान और निष्काम साधकों को चलध्यान की शिक्षा देते हैं। वे अचलध्यान में इन्द्रियों को स्थिर रखने की और चलध्यान में इन्द्रियों को स्वतन्त्रता प्रदान करने की आज्ञा करते हैं। इस चलध्यान का एक उदाहरण गमनयोग भी हो सकता है।
७. शक्तिपात और प्राणोत्थान तन्त्रों में जिसको 'शक्तिपात' अथवा 'शक्तिसंचार' कहते हैं उसी को भक्ति और ज्ञानयोग में 'अनुग्रह' कहते हैं । समर्थ गुरु दृष्टि, शब्द, स्पर्श अथवा संकल्पन इन चार प्रकारों में से किसी एक प्रकार द्वारा शक्तिपात करते हैं। शक्तिपात द्वारा प्राणोत्थान होता है।
प्राचीनकाल के योगाचार्य आवश्यकता प्रतीत होने पर ही उच्च कोटि के मुमुक्षु पर शक्तिपात करते थे, जिससे साधक के शरीर में विविध योगप्रक्रियाएँ अपने आप क्रमशः उद्भूत होती थीं, फलतः उसको उन योगप्रक्रियाओं को किसी गुरु से विधिपूर्वक सीखने की आवश्यकता नहीं रहती थी। इस प्रकार उसकी साधना आत्मनिर्भर हो जाती थी।
प्राणोत्थान किसी भी योग की अनिवार्य आवश्यकता है। उसके बिना योगयात्रा नहीं की जा सकती। हां, यह सत्य है कि यह प्राणोत्थान ज्ञान, योग अथवा भक्ति के किसी भी एक या एकाधिक साधनों के समुचित अनुष्ठान
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