Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड
विपश्यना : कर्मक्षय का मार्ग
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कन्हैयालाल लोढ़ा, एम ए.
विपश्यना स्वरूप
'विपश्यना' शब्द 'वि' उपसर्गपूर्वक 'पश्य' धातु से बना है। पश्य का अर्थ है दर्शन । वर्तमान में दर्शन शब्द केवल 'देखना' अर्थ में प्रयुक्त होता है। परन्तु बुद्ध व महावीर के काल में पश्य या दर्शन शब्द संवेदन, साक्षात्कार या अनुभव करने के अर्थ में प्रयुक्त होता था । 'वि' उपसर्ग 'विशेष' अर्थ का द्योतक है। अत: विपश्यना शब्द का अर्थ हैविशेष रूप से दर्शन या साक्षात्कार करना ।
यहाँ विशेष से अभिप्राय यह है कि जो जैसा है उसे ठीक वैसा ही अनुभव करना अर्थात् बिना किसी प्रकार की मिलावट, जोड़ व भ्रान्ति के वस्तुस्थिति का साक्षात्कार करना । साधारणतः मानव जो साक्षात्कार करते हैं, वे राग-रंजित, द्वेष-दूषित व मोह-मूच्छित होकर करते हैं। अतः वह शुद्ध साक्षात्कार न होकर राग-द्वेष-मोह से युक्त अशुद्ध साक्षात्कार होता है। इसी अशुद्ध साक्षात्कार का निषेध करने के लिए यहाँ 'वि' (विशेष) उपसर्ग का प्रयोग किया गया है। दूसरे शब्दों में वस्तुस्थिति की सच्चाई का साक्षात्कार करना ही विपश्यना है। विपश्यना धर्म
वस्तु या प्रकृति के स्वभाव को धर्म कहा जाता है। जैसे आग का स्वभाव; उष्णता आग का धर्म है और वस्तु के स्वभाव का साक्षात्कार करना ही विपश्यना है अर्थात् वस्तु या प्रकृति का वास्तविक रूप ही धर्म है और उस धर्म का साक्षात्कार या अनुभव करना ही विपश्यना है। इस प्रकार धर्म और विपश्यना एक ही अर्थ के द्योतक हैं। विपश्यना : सत्य का साक्षात्कार
मत्य का साक्षात्कार बुद्धिजन्य कल्पनाओं, जल्पनाओं व मान्यताओं से नहीं होता है, अपितु अनुभव से होता है। उस सत्य पर चलने से होता है। जैसे-जैसे व्यक्ति जीवन में सत्य को स्थान देता जाता है, उस पर आचरण करता है, चरण बढ़ाता है वैसे-वैसे वह सत्यता की गहराई व सूक्ष्मता का अधिकाधिक साक्षात्कार करता जाता है। यह नियम है कि जो जितना ही सूक्ष्म होता है वह उतना ही विभु, विशेषता लिए और अधिक सक्षम होता है तथा अलौकिक, विलक्षण व अचिन्त्य शक्तियों का भण्डार होता है । यही नियम या तथ्य विपश्यना पर भी घटित होता है।
विपश्यना में जिस सत्य का साक्षात्कार होता है उस पर चलने से प्रकृति के सूक्ष्म, सूक्ष्मतर व सूक्ष्मतम सत्यों (सिद्धान्तों), धर्मों व शक्तियों का प्रत्यक्ष साक्षात्कार होने लगता है और अन्त में अपने ही में विद्यमान अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, अनन्तसामर्थ्य प्रकट हो जाता है फिर वह सर्वथा बन्धनमुक्त होकर सदा के लिए भव-भ्रमण व दुःख से छुटकारा पा जाता है। विपश्यना : ऋजु मार्ग
वस्तुत: विपश्यना कोई रहस्य, जादू या चमत्कार नहीं है। प्रत्युत् सत्य को साक्षात्कार करने के क्रमिक विकाम का सरल व सुगम मार्ग है । इसमें न तो कोई छिपाने की बात है और न कुछ जोड़ने की बात है; न कुछ साधन सामग्री की, न दार्शनिक बुद्धि की और न भाषाज्ञान की आवश्यकता है। केवल अपने ही अन्तरंग में विद्यमान दर्शन व ज्ञान को स्थूल से मूक्ष्म की ओर बढ़ाना है। विपश्यना अपनी ही अनुभूतियों से अपनी भ्रान्तियों (मिथ्या मान्यताओं) को मिटाते हुए पूर्ण सत्य व शुद्ध दर्शन-ज्ञान को प्रकट करने का मार्ग है, प्रक्रिया है। जिस पर चलने में मानवमात्र समर्थ है भले ही वह किसी भी जाति का हो, किसी भी देश का हो, कोई भी व्यवसाय करने वाला हो,
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