Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड
चाहिए कि इस विषय के आधुनिक अनुसन्धानों को समझकर पारणे की विधि में उचित परिवर्तन करें और स्वयं भी इस विषय पर अनुसन्धान और प्रयोग करें।
उपवास के बाद बहुत कम आहार लेना चाहिए । उपवास के कारण जो मल सूख जाता है, वह निकल जाय, रुककर विकृति पैदा न करे ऐसा आहार लेना चाहिए। यदि सहज मल-निष्कृति न होती हो तो एनिमा द्वारा मलशुद्धि करानी चाहिए । तपस्या का आध्यात्मिक मूल्य तो है ही पर शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से भी उपयोग है । इस दृष्टि से इस विषय पर अध्ययन व अनुसंधान होना आवश्यक है।
जैन-साधना पद्धति में बारह तपों का वर्णन है। उनमें बाह्यतपों के जो नाम दिये गये हैं वे भी साधना में आहार को सीमित करने के पक्ष में हैं। इस दृष्टि से उन तपों का विवेचन यहाँ प्रस्तुत है।
अवमोदर्य--अवमोदर्य का अर्थ है भूख से कम खाना। इस विषय में आज का विज्ञान यह कहता है कि भूख से जितने लोग मरते हैं, उससे बहुत अधिक लोग ज्यादा खाने से मरते हैं। भूख से कम खाना स्वास्थ्य के लिए हितकर है।
अवमोदर्य यानी मिताहार की उपयुक्तता वैद्यकशास्त्र ने तो बतायी ही है। क्या प्राचीन, क्या आधुनिक । सभी वैद्य, डाक्टरों ने मिताहार को स्वास्थ्यप्रद व दीर्घायु देने वाला बताया है। आँकड़ों से भी यह सिद्ध हुआ है कि कम खाने वाले दीर्घायु होते हैं।
अमेरिका का डा० मैकफेडन कहता है 'भोजन के बहाने खाद्य पदार्थों का जितना दुर्व्यय होता है उससे एकचौथाई में भी काम बड़ी आसानी से चल सकता है। अकाल में भोजन के अभाव में जितने लोग मरते हैं उससे कहीं अधिक अनावश्यक भोजन से मरते हैं।'
आस्ट्रेलिया के डा० हर्नल का कथन है कि 'मनुष्य जितना खाता है, उसका एक-तिहाई भाग भी वह पचा नहीं सकता, पेट में बचा हुआ भोजन रक्त को विषैला बनाता है जिससे अनेक रोग होते हैं। जीवन-शक्ति को भोजन पचाने का तथा आमाशय में बचे अनावश्यक भोज्य पदार्थों से निर्मित विषों से शरीर को मुक्त करने का-ऐसे दो काम करने पड़ते हैं।'
प्राचीन वैद्यकशास्त्र में भी हितभुक्, मितभुक्, ऋतुभुक् को निरोगी कहा है। हमारे आचार्यों ने भी यही बात कही है । सुप्रसिद्ध आचार्य हरिभद्र ने ओघनियुक्ति में कहा है
"हियाहारा मियाहारा, अप्पाहारा य जे नरा। नते विज्जातिगिच्छति, अप्पाणं ते तिगिच्छगा।
-ओघनियुक्ति ५७८ जो हितभोजी, मितभोजी होता है उसे वैद्यों की चिकित्सा की जरूरत नहीं होती। वह अपना चिकित्सक स्वयं होता है। आचार्य उमास्वाति ने प्रथमरति में कहा है
कालं क्षेत्र मात्रां, स्वात्म्यं द्रव्य-गुरु लाघवं स्वबलम् । ज्ञात्वा योऽभ्यवहार्यः भुङ्क्ते कि भेषजस्तस्य ।
-प्रशमरति १३७ जो काल, क्षेत्र, मात्रा, आत्महित, द्रव्य की लघुता-गुरुता एवं अपनी शक्ति का विचार कर भोजन करता है उसे औषधि की जरूरत नहीं पड़ती। आचार्य सोमदेव ने नीतिवाक्यामृत में लिखा हैयो मितंभुक्ते स बहुभुक्ते ।
-नीतिवाक्यामृत २५/३८ जो कम खाता है, वह बहुत खाता है। क्षमाश्रमण जिनभद्र ने बृहत्कल्पभाष्य में लिखा है
अप्पाहारस्स न इंदियाई विसएसु संपत्तंति ।
नेव किलम्मइ तवसा रसेसु न सज्जए यावि ॥ अल्पाहारी की इन्द्रियाँ विषयभोगों की ओर नहीं दौड़तीं। तप करने पर भी क्लांत नहीं होती और न स्वादिष्ट भोजन में आसक्त होती है। आवश्यकनियुक्ति गाथा १२६५ में लिखा है
'थोवाहारो थोवभणियो य, जो होइ थोवनिदो य ।
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