Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड
कभी वे उसे चाटते हैं, कभी प्यार से चूसते हैं, कभी दाँतों के बीच पकड़ लेते हैं और अन्त में उसे मुंह में लेकर ठण्डा करते हैं। जिनको ये लाल तपाये हुए छड़ नहीं मिल पाते, वे ठण्डे छड़ों को ही दीवारों पर से, जहाँ वे टंगे रहते हैं, ले लेते हैं और अपने हाथ-पांव और शरीर में घुसेड़ते हैं। चौथे दृश्य का अन्त होते-होते दो दरवेश इन छड़ों को शेख के हाथों में दे देते हैं । जलती हुई आग में वे पहले से ही वहीं पर तपते रहते हैं।
"उस क्रिया में किसी के चेहरे पर शिकन या पीड़ा के चिन्ह नहीं दीखते। अन्त में शेख प्रत्येक के पास जाता है, उनके घाव पर मुंह से फूंकता और अपना थक उस पर मलता है। उस पर मन्त्र का पाठ करता है और कहता है कि वे जल्दी ही आरोग्य लाभ करेंगे। कहा जाता है कि चौबीस घण्टे के बाद घाव का कोई भी चिन्ह नहीं रह जाता।"
जिक्र-जली का ही एक विकसित रूप है-'संगीत' (समाँ)। समाँ का अर्थ है तन्मयता के साथ सुनना । किन्तु सूफियों में इसका अर्थ है संगीत, गायन, आदि का ऐसा समस्वर पाठ, जिसमें एक या सबके सम्मिलित प्रभाव द्वारा भावाविष्टावस्था उत्पन्न हो जाय । २ इस्लाम में संगीत की विशेष प्रतिष्ठा न होते हुए भी सूफियों ने इसे अन्तर्दृष्टि खोलने का साधन माना है। इनका विश्वास है कि समाँ (संगीत) सौन्दर्य की प्रशंसा के लिए अद्वितीय साधन है । सांसारिक सौन्दर्य की प्रशंसा परम सौन्दर्य के लिए पुल का कार्य करती है। सूफी को अपने साथ प्रकृति सुन्दरी भी अपने सौन्दर्यस्रोत का गुणगान करती-सी दीख पड़ती है। 'संगीत, वाद्यादि से भावोल्लास उत्पन्न होने पर सूफी-साधक अकेले या सम्मिलित रूप से नत्य करना शुरू कर देते हैं, जिसे 'रक्स' कहते हैं।४ जब कब्बाल विविध वाद्यों के साथ कीर्तन करते हैं तो एक मादकता-सी छा जाती है। अनेक को 'हाल' (तन्मयता) आ जाता है और इलहाम होने लगता है। ५५
"सूफी इस बात में विश्वास करते हैं कि परमात्मा ने जगत के सभी प्राणियों को अपनी-अपनी भाषा में उसका गुणानुवाद करने की शक्ति दी है। इस प्रकार से सृष्टि की जितनी ध्वनियाँ हैं वे स्तुति-वादन का रूप ले लेती हैं । अतएव परमात्मा ने जिसके अन्तर् को खोल दिया है; और आध्यात्मिक दृष्टि प्रदान की है वह सर्वत्र उसकी आवाज सुनता है। मुअज्जिन के लय-सूरवाले संगीत को सुनकर अथवा हवा की आवाज या चिड़ियों के सूरीले संगीत आदि को सुनकर वह भावाविष्टावस्था को प्राप्त हो जाता है। सूफी कवियों ने भी बहुत जगह कहा है कि इस सृष्टि में आने के पहले; जब आत्मा, परमात्मा से अलग नहीं हुआ था और उस समय उसने जो स्वर्गीय संगीत सुना था; उसको इस संसार का संगीत जाग्रत कर देता है । संगीत को सुन वह इस संसार से परे होकर उस स्वर्गीय संगीत को सुनने लगता है और उसे पूर्वावस्था (जिसमें आत्मा परमात्मा से अलग नहीं था) प्राप्त हो जाती है ।"२६
योग की 'कुण्डलिनी-चक्रों' से मिलता-जुलता सूफीमत में 'लतायफ' का सिद्धान्त भी प्रचलित है। श्री रामपूजन तिवारी ने शेख अहमद के अनुसार शरीर में छः अवस्थानों का उल्लेख किया है जो निम्नलिखित हैं :
(१) नफ्स-इसका स्थान नाभि के नीचे है। (२) कल्ब-छाती के बायीं ओर अवस्थित है। (३) रूह-छाती के दाहिनी ओर अवस्थित है। (४) सिर-कल्ब और रूह के बीच में है। (५) खफी-इसका स्थान ललाट है। (६) अल्फा-मस्तिष्क में अवस्थित है।
इन लतीफों के रंगों तथा देवताओं की भी कल्पना की गयी है। किन्तु इन रंगों और स्थानों के बारे में मतभिन्नता पायी जाती है। साधक जिस अवस्था को प्राप्त होता है वह उस रंग का सिरस्त्राण धारण करता है और उस रंग को देखकर उस साधक की आध्यात्मिक यात्रा की मंजिल का पता चलता है। साधारणत: रूह का रंग हरा हो जाता है। कहा जाता है कि जैसे-जैसे सालिक (यात्री) ऊपर की ओर बढ़ता जाता है वह भिन्न-भिन्न रंगों को देखता है। आखिरी मंजिल वह है जब सम्पूर्ण भाव से वर्णहीनता आ जाती है अर्थात् कोई भी रंग नहीं रह जाता। साधक उस समय फना की अवस्था को प्राप्त हो जाता है। इसे सूफी 'आलमे हैरत' कहते हैं।
"सूफी के लिए परमात्मा के अनवरत स्मरण द्वारा इन लतीफों को जाग्रत करना आवश्यक है। 'जिक्र' आदि की विशेष क्रियाओं द्वारा सूफी एक के बाद एक लतीफे को जाग्रत करने में समर्थ होता है और अन्त में उसे परम ज्योति के दर्शन होते हैं।"
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