Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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योग और ब्रह्मचर्य
५. शीतल जल के स्नान से भी कामवासना शान्त हो जाती है ।
६. कटि डूब जाय इतने गहरे जल में खड़े रहने से अथवा शीतलजलपूर्ण टप में बैठने से विषय विकार विनष्ट हो जाता है।
७. गुरुमन्त्र सहित पन्दरह-बीस लोम-विलोम प्राणायाम करने से भी कामशमन हो जाता है। लोम-विलोम के स्थान पर भस्त्रिका प्राणायाम का प्रयोग भी हो सकता है। लोम-विलोम प्राणायाम में मन्त्र की शक्ति मिलती है, अतः मन बलवान हो जाता है और वह विषय विकार के वशीभूत नहीं होता ।
८. सद्ग्रन्थों के पाठ, प्रभु प्रार्थना अथवा इष्ट मन्त्र के जप से भी कामवासना नष्ट हो जाती है । २. ऊर्ध्वरेता योगी का ब्रह्मचर्य
ब्रह्मज्ञान की उपलब्धि ऊर्ध्वरेता हुए बिना नहीं होती, इसलिए श्रीमद्भगवद्गीता में कहा हैआवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा । कामरूपेण कौन्तेय यूरेणालेन च ॥
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"कौन्तेय ! ज्ञानी का नित्य वैरी अतृप्त काम है । उसके द्वारा ब्रह्मज्ञान ढँका हुआ है।" जिस प्रकार यन्त्र में वाष्प को रुधने से आश्चर्यजनक ऊर्जा उत्पन्न होती है उसी प्रकार शरीर में शुक्र को ऊर्ध्वगामी बनाने से अलौकिक शक्ति उत्पन्न होती है । इससे सर्वप्रथम योगी का शरीर दिव्य हो जाता है। योग की जिस भूमिका में योगी को दिव्य शरीर की प्राप्ति होती है उस भूमिका को भक्तिशास्त्रों ने 'सारूप्यमुक्ति' कहा है । उस मुक्ति की प्राप्ति के पश्चात् अर्थात् उस भूमिका के उत्क्रमण के पश्चात योगी को योग की चतुर्थ भूमिका में 'सा' नामक मुक्ति की उपलब्धि होती है। 'सारूप्यमुक्ति में उसको श्रीहरि के समान रूप की और सामुक्ति' में बीहरि के समस्त अधिकारों की प्राप्ति होती है। इस प्रकार योगी हरिरूप हो जाता है। मुक्ति की यह चतुर्थ भूमिका सांख्ययोग, निष्काम कर्मयोग एवं भक्तियोग की चरम सीमा है ।
ब्रह्मविद्या के आद्य प्रवर्तक श्री ऋषभदेव हैं। शिवजी एवं कर्मयोगी श्रीकृष्णजी भोगी नहीं अपितु ऊर्ध्वरेता
योगी हैं।
ऊर्ध्वरेता (निष्काम) बनने के लिए साधक को आरम्भ में क्या करना चाहिए । यह श्रीमद्भगवद्गीता में इस प्रकार बताया है
नियम्य
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तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ पात्मानं प्रजहि
भरतर्षभ । ज्ञानविज्ञाननाशनम् ॥ २/४०॥
" इसलिए, भरतश्रेष्ठ ! तू पहले इन्द्रियों को रोककर ज्ञान-विज्ञान के नाश करने वाले इस पापी काम को निश्चय ही त्याग दे ।" अब वे उस काम को किस युक्ति द्वारा दूर करना चाहिए, वह बताते हैं
एवं बुद्धः परं बुद्ध वा संस्तभ्यात्मानमात्मना ।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं सम् ।।३/४१॥
" इस प्रकार इस दुर्विजय कामरूप शत्रु को बुद्धि से भी प्रबल मानकर, हे महाबाहो ! तू आत्मा से आत्मा को रोककर त्याग ।" इस श्लोक में काम को दूर करने के लिए आत्मा को आत्मा से स्तम्भन करने की प्रेरणा प्रदान की गयी है । यह एक रहस्यमयी योग प्रक्रिया है । मैं यहाँ 'आत्मा' शब्द का अर्थ 'शुक्र' करता हूँ । संस्कृत में 'आत्मन् ' शब्द अनेकार्थी है । इनमें 'जीवनतत्त्व' और 'सारतत्त्व' इन अर्थों का भी समावेश होता है। शुक्र जीवनतत्त्व भी है और सारतत्त्व भी । अतः इन शब्दों को आत्मा के स्थान पर प्रयुक्त किया जा सकता है। यहाँ प्रसंग भी काम को दूर करने का है । दूसरा 'आत्मा' शब्द शुद्ध मन के लिए प्रयुक्त किया गया है। आत्मा को आत्मा से रोकना यानी शुद्ध मन से बीर्य को स्खलित होने से रोकना । इस योग प्रक्रिया का वर्णन इस प्रकार है
महाभारत के युद्ध की अपेक्षा विषय-वासना का युद्ध अति भीषण है । निष्काम कर्मयोग में साधक को सिद्धासन द्वारा शुक्रग्रन्थि में शुक्र उत्पन्न कर उसको ऊर्ध्वगामी बनाते रहना होता है । शुक्रग्रन्थि में वीर्योत्पत्ति तब होती है जबकि गुह्येन्द्रिय में प्रबल जागृति आती है । जिस समय अपानवायु शुक्र को बलात् अधोमार्ग में आकर्षता है, उस समय अक्षुब्ध योगसाधक को प्राणवायु की सहायता द्वारा अपानवायु को ऊर्ध्वगामी बनाने का अति भीषण कर्म करना पड़ता है। यह कार्य योगयुक्ति एवं आचार्य के अनुग्रह द्वारा ही हो सकता है। इस 'निष्काम कर्मयोग' का यथार्थ स्वरूप अबगत न होने के कारण पीछे से बौद्धधर्म और सनातन धर्म की शैव, वैष्णव और शाक्त शाखाओं में वाममार्ग का प्रचलन हुआ था।
निष्काम कर्मयोग द्वारा शरीर की प्रत्येक नाड़ी मलरहित हो जाने के पश्चात् शरीर स्वाभाविक रीति से
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