Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड
सुस्थिर एवं सरल हो जाता है । अर्थात् प्रत्याहार की भूमिका समाप्त होकर ध्यान की भूमिका का आरम्भ होता है। इस अवस्था में बाह्य इन्द्रियाँ ध्यान को सहयोग प्रदान करती हैं। किसी भी प्रकार की बाधा उपस्थित नहीं करतीं । इससे मनोनिग्रह सुकर हो जाता है । अन्य शब्दों में इस तथ्य को प्रस्तुत करना हो तो इसे इस प्रकार कर सकते हैं कि इन्द्रियों की चंचलता छूट जाने के पश्चात् मन स्वाभाविक रीति से अन्तर्मुख हो जाता है, क्योंकि मन की बहिर्मुखता का कारण इन्द्रियों की चंचलता ही होता है । प्राण और मन की सहायता द्वारा इन्द्रियनिग्रह सिद्ध होता है, अतः इन्द्रियों की चंचलता विनष्ट होने से प्राण एवं मन में भी आंशिक स्थिरता का संचार होने लगता है । इस भूमिका की प्राप्ति के अनन्तर ही सांख्ययोग का आरम्भ आज्ञा-चक्र से होता है। निष्काम कर्मयोग द्वारा मूलाधारचक्र, स्वाधिष्ठानचक्र, मणिपूरचक्र, अनाहतचक्र, विशुद्धाख्यचक्र तथा ब्रह्मग्रन्थि, विष्णुग्रन्थि एवं रुद्रग्रन्थि का भेदन होता है। इन चक्रों के स्थान कर्मेन्द्रियों की सीमा में होने के कारण उसको निष्काम कर्मयोग का क्षेत्र कहा है। निम्न चक्रों एवं ग्रन्थियों के भेदन के अनन्तर आज्ञाचक्र एवं सहस्रदलपद्म के भेदन का कार्यारम्भ होता है । इन चक्रों के स्थान ज्ञानेन्द्रियों की सीमा में होने के कारण उसको ज्ञानयोग या सांख्ययोग का क्षेत्र कहा है।
अब गीताकार कैसी पात्रता वाले साधक इस अतिगढ़ और सर्वोत्तम ब्रह्मविद्या को प्राप्त करते हैं, वह बतलाते हैं
जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यत्नन्ति ये ।
ते ब्रह्म तद् विदुः कृत्स्नमध्यात्म कर्म चाखिलम् ॥७/२६॥ "जो जरामरण से छूटने के लिए मेरा आश्रय लेकर यत्न करते हैं वे उस ब्रह्म को, सम्पूर्ण अध्यात्म को और समस्त कर्मों को जान लेता है ।" यह श्लोक अत्यन्त ध्यानपूर्वक चिन्तन करने योग्य हैं। इसमें कहा गया है कि जो साधक स्व-शरीर को वृद्धावस्था और मृत्यु से विमुक्त करने के लिए मेरी शरण ग्रहण करके साधना करता है, केवल वही उस परब्रह्म परमात्मा को, सम्पूर्ण अध्यात्म को और समस्त कर्मों को जान लेता है। इसका अर्थ तो यह हुआ कि जो योगी ऊर्ध्वरेता बनकर दिव्य शरीर की उपलब्धि करता है, वही जरा-मरण से विमुक्त जीवनमुक्त है और वही योगी सच्चा तत्त्वदर्शी महापुरुष है। इस श्लोक में 'जरा' शब्द अधिक महत्व का है। जो मरण से छूटता है वह जन्म से भी छूट जाता है । मरण से छूटना ही जन्म से छूटना है। अतः यहाँ जरा-मरण के स्थान पर 'जन्म-मरण' शब्द को ग्रहण करना अनुचित है । जरा-मरण से छूटना यानी योगाग्निमय दिव्य शरीर को पाना । योगी दिव्य शरीर की प्राप्ति की भूमिका पर्यन्त पहुँचता है। उस अवधि में चित्त की संशुद्धि हो जाती है। निर्बीज समाधि की सिद्धि का सामान्य चिह्न दिव्य शरीर है। वह समाधि तभी सिद्ध होती है जबकि योगी के अन्तःकरण में परम वैराग्य उत्पन्न होता है। अतः यह स्पष्ट है कि ऐसे योगी को पार्थिव अथवा अपार्थिव शरीर के प्रति ममता या आसक्ति नहीं होती। यदि ममता या आसक्ति हो तो उसके अन्त:करण में परम वैराग्य उत्पन्न हुआ है, ऐसा नहीं कह सकते । ऐसा योगी निर्बीज समाधि सिद्ध ही नहीं कर सकता । मोक्षेच्छु योगी योग की सिद्धियों के लिए साधना नहीं करता, उसको तो केवल मोक्ष की ही कामना होती है और वह भी पर-वैराग्य की उत्पत्ति के अनन्तर लुप्त हो जाती है । तत्पश्चात् वह निरिच्छ और निर्भय होकर उपासना किया करता है। यह योग विज्ञान है।
तन्त्रों ने दिव्य शरीर की प्राप्ति को एक सिद्धान्त ही माना है। इतना ही नहीं, बौद्धतन्त्रों ने भी उसी को महत्ता दी है। बौद्धधर्म के तीन महा सिद्धान्त हैं-शील, समाधि एवं प्रज्ञा । ज्ञान की स्थिति अन्तिम है । इसका वैज्ञानिक क्रम इस प्रकार है-शील एवं समाधि से प्रज्ञा का उद्गम होता है । जब तक शरीर की सम्पूर्ण शुद्धि नहीं होती, तब तक मलिन शरीर में प्रज्ञा अथवा परमज्ञान को धारण करने की क्षमता ही नहीं उत्पन्न हो पाती । शुद्ध शरीर में ही शुद्ध ज्ञान का आविर्भाव हो सकता है। शील द्वारा शारीरिक शुद्धि एवं समाधि द्वारा चित्तशुद्धि होती है। जब क्रियायोग द्वारा रजस्-तमस् निर्बल बनते हैं और सत्त्वगुण अति प्रबल होता है तभी चित्त शुद्ध होता है। ऋतंभराप्रज्ञा को ही श्रीमद्भगवद्गीता के अठारहवें अध्याय में सात्त्विक बुद्धि कहा है। इस दृष्टिकोण से 'नाडीशुद्धि' शब्द 'चित्तशुद्धि' का पर्याय है। कर्मयोगी श्रीकृष्ण अपने प्रियतम शिष्य को आज्ञा करते हैं
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः ।
कमिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ! ॥६/४६॥ "तपस्वियों और ज्ञानियों से भी योगी अधिक श्रेष्ठ है, इतना ही नहीं, अग्निहोत्रादि कर्म करने वालों से भी योगी अधिक श्रेष्ठ है, अत: हे अर्जुन ! तू योगी ही बन ।" योगी बनना यानी ऊर्ध्वरेता बनना ।
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