Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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......... $400 $
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जैन राजनीति
'कुलकर संस्था' एक प्रकार की समाज व्यवस्था को सम्पादित करने वाली संस्था है। कुलकर जीवन मूल्यों को नियमबद्ध कर एकता और नियमितता प्रदान करते हैं। अपराध या भूलों का परिमार्जन दण्ड-व्यवस्था के बिना सम्भव नहीं है । अतः कार्यों और क्रिया व्यापारों को नियन्त्रित करने के लिए अनुशासन की स्थापना की जाती है । इस 'कुलकर संस्था' का विकसित रूप ही राज्य संस्था है, जिसमें समाज और राजनीति दोनों के तत्त्व वर्तमान हैं। आदिपुराण के अनुसार कुलकर-संस्था द्वारा सामान्यतः निम्नांकित कार्यों का सम्पादन हुआ है
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१. समाज के सदस्यों के बीच सम्बन्धों का संस्थापन |
२. सम्बन्धों की अवहेलना करने वालों के लिए दण्ड-व्यवस्था का निर्धारण ।
३. स्वाभाविक व्यवहारों के सम्पादनार्थं कार्य प्रणाली का प्रतिपादन ।
४. आजीविका, रीति-रिवाज एवं सामाजिक अओं की व्याख्या का निरूपण ।
५. सांस्कृतिक उपकरणों द्वारा स्वस्थ वैयक्तिक जीवन-निर्माण के साथ सामाजिक जीवन में शान्ति और सन्तुलन स्थापनार्थ विषय सुख की अवधारणाओं में परिवर्तन ।
६. समाज संगठन एवं विभिन्न प्रवृत्तियों का स्थापन ।
७. सामूहिक क्रियाओं का नियन्त्रण एवं समाजहित प्रतिपादन |
चर्च
डॉ० शास्त्री ने आगे लिखा है कि "कुलकर एक सामाजिक संस्था है। वर्तमान में परिवार, क्लब, आदि को जिस प्रकार संस्थाओं की संज्ञा प्राप्त है, उसी प्रकार कुलकर-संस्था को भी । ""
डॉ० शास्त्री के इस निष्कर्ष से सहमत होने की अपेक्षा मैं उनके इस कथन से सहमत हो सकता हूँ कि “इस प्राचीन संस्था का विकसित रूप ही राज्य, स्वायत्तशासन, पंचायत एवं नगरपालिका आदि संस्थाएं हैं।"" वास्तव में कुलकर व्यवस्था सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक व्यवस्था का सम्मिलित रूप है । सभ्यता के प्रारम्भिक युग में इससे भिन्न रूप की सम्भावना करना भी उचित नहीं होगा ।
कुलकर व्यवस्था की तुलना मन्वन्तर-संस्था से की जाती है। कुलकरों को भी जिनसेन ने मनु कहा है। संस्था और कार्यों आदि में भी समानता है ।"
कुलकरों की दण्ड-नीति-कुलकरों की दण्डनीति का जो विवरण प्राप्त होता है उसके अनुसार उनकी दण्डनीति का विकास इस प्रकार है
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१. 'हा' कार — जब कोई मर्यादा का उल्लंघन करता तो उसे 'हाकार' का दण्ड दिया जाता है । अर्थात् " हा ! तूने यह क्या किया ?" ऐसा कहकर अपराधी की निन्दा की जाती ।
२. 'मा'कार - इस दण्डनीति के अन्तर्गत अपराधी को भविष्य के लिए चेतावनी भी दी जाती थी कि फिर भविष्य में ऐसा नहीं करना ।
३. 'धिक् कार - इसके अन्तर्गत अपराधी की तीव्र विगर्हणा की जाती थी ।
जिनसेन ने लिखा है कि पहले मात्र 'हाकार' का प्रयोग होता था । उसके बाद 'हाकार' और 'माकार' का प्रयोग किया जाने लगा और उसके भी बाद 'हाकार', 'माकार' और 'धिक्कार' का प्रयोग आरंभ हुआ।
'कुलकर व्यवस्था' के विवरण में बताया गया है कि १४ कुलकर एक लम्बी कालावधि में क्रमशः हुए । कहीं-कहीं संख्या में अन्तर है, किन्तु क्रमशः हुए, इस विषय में सभी शास्त्रकार एकमत हैं ।
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जिस समय 'कुल' बने और कुलकर व्यवस्था आरंभ हुई, या जब तक यह व्यवस्था चलती रही, तब तक सारा मानव समाज एक कुल के रूप में संगठित था और उसका प्रमुख कुलकर कहलाता था तथा यह व्यवस्था क्रमशः १४ कुलकरों की दीर्घावधि तक चलती रही ऐसा स्वीकार करने में कठिनाई है। ऐसा प्रतीत होता है कि यौगलिक व्यवस्था के बाद मानव समूह छोटे-छोटे अनेक कुलों में संगठित हो गया था और उन कुलों के मुखिया कुलकर कहलाते थे । कुलकर कौन हो सकता था ? वय या शक्ति, किसके आधार पर उसका चुनाव होता था, इसकी पकड़ का कोई सूत्र स्पष्ट रूप से ग्रन्थों के वर्णन में नहीं मिलता। उनके अनुसार तो कुलकर जन्म से ही कुलकर होता था । संभवतया मुख्य रूप से वयोवृद्ध व्यक्ति ही अपने अनुभव-ज्ञान के आधिक्य के कारण अपने कुल का प्रमुख होता था । किसी विशेष स्थिति में कुल के विशेष शक्तिसम्पन्न व्यक्ति को भी कुल का प्रमुख स्वीकार कर लिया जाता होगा । वही कुलकर कहलाता था। कुल के भरण-पोषण, संरक्षण, अनुशासन आदि के लिए भी वह उत्तरदायी होता होगा ।
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