Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
Jain Education International
२६
श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : सप्तम खण्ड
+++
कुलकर व्यवस्था के सन्दर्भ में एक अन्य जिस बात पर ध्यान दिया जाता है, वह ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है । कुलकरों के जितने भी नाम आगम साहित्य या अन्य साहित्य में प्राप्त होते हैं, वे सभी पुरुषों के हैं । सन्तति के प्रजनन, पोषण और संरक्षण में स्त्री की महत्त्वपूर्ण भूमिका होते हुए भी कुलकरों में एक भी स्त्री का नाम न होना, विचारणीय है ।
कुलकर संस्था का अध्ययन सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक किंवा समग्र सांस्कृतिक इतिहास की दृष्टि से किया जाना आवश्यक है ।
(३) ऋषभदेव का राजतन्त्र - कुलकर व्यवस्था के बाद जैन वाङमय में राजनीति का जो स्वरूप प्राप्त होता है, वह स्पष्ट रूप से राजतन्त्र का है । प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के पिता नाभिराय अंतिम कुलकर थे । उनके नाम के साथ जुड़ा 'राय' शब्द संभवतया उनके राजा होने का इंगित है । वे उस राज्य की नाभि (केन्द्र) थे ।
नाभिराय ने अपने बाद अपने पुत्र ऋषभ को अपना उत्तराधिकारी बनाया। विधिवत् अभिषिक्त होने के पूर्व से ही नाभिराय अनेक मामलों को ऋषभ के पास भेज देते थे ।" जब उन्होंने सारी व्यवस्था सँभाल ली तथा उनका प्रभाव धरती और आकाश में फैल गया तो सुरों ने आकर उन्हें अधिराज पद पर अभिषिक्त किया ।" नाभिराज ने अपना मुकुट उतारकर अपने ही हाथ से अपने बेटे को पहना दिया ।"
ऋषभ ने ग्राम, नगर, खेट, कर्वट आदि की व्यवस्था की तथा कृषि, वाणिज्य आदि का सम्यक् विनियोग किया। बाद के शास्त्रकारों ने ऋषभ के युग की राजनीति का जो वर्णन किया है, उसे उस युग का नहीं माना जा सकता । उस प्रकार की शासन व्यवस्था का विकास बाद में हुआ ।
ऋषभ की शासन व्यवस्था का विवरण आचार्य हस्तिमल जी ने आवश्यक नियुक्ति के आधार पर इस प्रकार दिया है—
" राज्याभिषेक के पश्चात् ऋषभदेव ने राज्य की सुव्यवस्था और विकास के लिए प्रथम आरक्षक दल की स्थापना की। उसके अधिकारी 'उग्र' नाम से कहे जाने लगे। फिर राजकीय व्यवस्था में परामर्श के लिए मन्त्रिमण्डल का निर्माण किया गया, जिसके अधिकारी को 'भोग' नाम से सम्बोधित किया जाने लगा। इसके अतिरिक्त एक परामर्श मण्डल की स्थापना की गयी जो सम्राट् के सन्निकट रहकर उन्हें समय-समय पर परामर्श देता रहे । परामर्श मण्डल के सदस्यों को 'राजन्य' और सामान्य कर्मचारियों को 'क्षत्रिय' नाम से सम्बोधित किया जाने लगा । विरोधी तत्त्वों से राज्य की रक्षा करने तथा दुष्टों को दण्डित करने के लिए उन्होंने चार प्रकार की सेना और सेनापतियों की व्यवस्था की। अपराधी की खोज एवं अपराध निरोध के लिए साम, दाम, दण्ड और भेदनीति तथा निम्नलिखित चार प्रकार की दण्डव्यवस्था का भी नियोजन किया ---
१. परिभाषण - अपराधी को कुछ समय के लिए आक्रोशपूर्ण शब्दों से दण्डित करना ।
२. मण्डली बन्ध - अपराधी को कुछ समय के लिए सीमित क्षेत्र - मंडल में रोके रहना । ३. चारक बन्ध - बन्दीगृह जैसे किसी एक स्थान में अपराधी को बन्द रखना ।
४. छवि- विच्छेद – अपराधी के हाथ-पैर जैसे शरीर के किसी अंग उपांग का छेदन करना ।
उपर्युक्त चार नीतियों के सम्बन्ध में कुछ आचार्यों का मत है कि अंतिम दो नीतियाँ भरत के समय से प्रच लित हुई थीं परन्तु भद्रबाहु के मन्तव्यानुसार बन्ध और घात नीति भी ऋषभदेव के समय में ही प्रचलित हो गयी थी ।"१४
आवश्यक नियुक्ति के इस विवरण से स्पष्ट ज्ञात होता है कि ग्रन्थकार के पूर्व राजनीति शास्त्र का जो विक्रास हो चुका था, उसकी भी बहुत सी बातों को इसमें समाहित कर लिया गया है ।
ऋषभदेव की शासन व्यवस्था में राजतंत्र का जो पूर्वरूप प्राप्त होता है, उससे लगता है कि यद्यपि स्वायत्तशासन या स्टेट्स की तरह के शासन की भी शुरुआत उस समय हो गयी थी । केन्द्रीय शासन सर्वोच्च था और उसी की रीति-नीति के अनुसार सभी प्रशासनिक इकाइयाँ कार्य करती थीं ।
ऋषभ तीर्थंकर के युग के लोगों को 'ऋजुजड़" १५ कहा गया। इससे ज्ञात होता है कि मानव सभ्यता के विकास के उस प्रथम चरण में अपराधवृत्ति अत्यल्प थी। जीवन की आवश्यकताएँ सीमित होने के कारण संघर्ष भी कम था और जिज्ञासाओं के समाधानों के सामने प्रश्न चिन्ह लगाने की प्रवृत्ति न होने के कारण विरोधजन्य कलह भी नहीं था । इसीलिए राजनीति सरल और शासन मृदु था ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org