Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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जैन राजनीति
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सभी कर सकते हैं, उसी प्रकार धर्म सभी के लिए है। उनका कहना है कि आचार की पवित्रता सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। जिसका आचार शुद्ध है, जिसके घर के पात्र पवित्र हैं तथा जो शरीर से स्वच्छ है, ऐसा शुद्र भी देव, द्विज और तपस्वियों की सेवा का अधिकारी है ।" सदाचार का पालन करना सभी का समाजधर्म है।
राष्ट्रीयता का महत्त्व-सोमदेव ने लिखा है कि राजा को जहां तक सम्भव हो राज्य के उच्च पदों पर स्वदेशवासियों की ही नियुक्ति करनी चाहिए। स्वदेशवासी में अपने राष्ट्र के प्रति अधिक लगाव होता है ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि नीतिवाक्यामृत जैन राजनीति का एक स्पष्ट चित्र प्रस्तुत करता है।
(१०) निष्कर्ष-संक्षेप में जैन राजनीति, धार्मिक, आर्थिक और सामाजिक नीति के साथ राजनीति का एक सम्मिलित रूप है । धर्म को राजनीति से अलग करने पर राष्ट्रीय चरित्र के विकास का स्पष्ट आधार शेष नहीं रहता। समाजनीति की उपेक्षा करने पर सामाजिक जीवन के उत्थान की संभावनाएँ कम हो जाती हैं और आर्थिक नीति पर ध्यान न देने की स्थिति में समाज और राज्य के विकास की रीढ़ ही दुर्बल हो जाती है । जैन राजनीति लौकिक और आध्यात्मिक समग्र विकास पर बल देती है। भौतिकवाद के इस युग में मानव व्यक्तित्व और राष्ट्रीय चरित्र के विकास के लिए जैन राजनीति का विशेष अध्ययन-अनुसंधान करके उसे विश्व के राजनैतिक क्षितिज पर प्रस्तुत करने की महती आवश्यकता है। सन्दर्भ एवं सन्दर्भ-स्थान १ यतिवृषभ-तिलोय-पण्णत्ति, जीवराज जैन ग्रंथमाला, शोलापुर, द्वि० सं० १९५६ । महाधिकार चार ।
जमला जमलपसूया ॥३३४॥ ते जुगलधम्मजुत्ता परिवारा णत्ति तक्काले ॥३४०॥ गामणयरादि सव्वं ण होदि ते होंति सव्व कप्पतरू । णियणियमणसंकप्पियवत्थूणि देंति जुगलाणं ॥३४१॥ पाणंगतूरियंगा भूसणवत्थंगभोयणंगा य ।
आलयदीवियभायणमालातेजंगआदि कप्पतरू ॥३४२।। २ जिनसेन-आदिपुराण भाग १, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन काशी, द्वि० सं० १९६३ । पर्व तीन ।
तिलोय-पण्णत्ति, महाधिकार चार। ३ प्रजानां जीवनोपायमननान्मनवो मतः ।
आर्याणां कुलसंस्त्यायकृतेः कुलकरा इमे ।। कुलानां धारणादेते मता: कुलघरा इति । युगादिपुरुषाः प्रोक्ताः युगादौ प्रभविष्णवः ।।
-आदिपुराण ३३२११, २१२ ४ डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री आदिपुराण में प्रतिपादित भारत, श्री गणेशप्रसाद वर्णी ग्रंथमाला वाराणसी, प्रथम संस्करण
१६६८, पृ० १३४ । ५ वही, पृ० १३६ । ६ वही, पृ० १३६ ।
७ (क) वही, पृ० १३६-१३७ । (ख) आचार्य हस्तिमल-जैनधर्म का मौलिक इतिहास, भाग १, जैन इतिहास समिति, जयपुर, १६७१, पृ०१-८ । ८ आवश्यकनियुक्ति-हक्कारे मक्कारे धिक्कारे चैव । है आदि पुराण ३/२१४.२१५ : तत्राद्यैः पञ्चभिन्णां कुलद्भिः कृतागसाम् ।
हाकारलक्षणो दण्डः समवस्थापितस्तदा । हामाकारश्च दण्डोऽन्यः पञ्चभिः संप्रवर्तितः ।
पञ्चभिस्तु ततः शेषैर्हामाधिक्कारलक्षणः ।। १० आदिपुराण १६६१२३-१३४ : नाभिराजमुपासेदुः प्रजा जीवितकाम्यया ।
___नाभिराजाज्ञया स्रष्टस्ततोऽन्तिकमुपाययुः ।। ११ वही, १५॥१७२ : तदास्याविरभूद् द्यावा पृथिव्यो प्राभवं महत् ।
आधिराज्येऽभिषिक्तस्य सुरैरागत्य सत्वरम् ।। १२ वही, १६।२३२-नाभिराजः स्वहस्तेन मौलिमारोपयत् प्रभोः । १३ जैनधर्म का मौलिक इतिहास, भाग १, पृ० २० । १४ आवश्यकनियुक्ति गाथा २ से १४ । १५ उत्तराध्ययनसूत्र, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, १९७२ । पुरिमा उज्जुजडा ॥ अध्ययन २३, गाथा २६ ।
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