Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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शासन प्रभाविका अमर साधिकाएँ
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महाराजश्री ने दूसरा प्रश्न किया-साधु कितना विहार करते हैं ? उत्तर में महासतीजी ने कहा-आचार्य प्रवर, साधु चौदह राजु का विहार करते हैं। केवली भगवान जिनका आयुकर्म कम होता है और वेदनीय नाम, गोत्र कर्म अधिक होता है, तब केवली समुद्घात होती है। उस समय उनके आत्मप्रदेश सम्पूर्ण लोक में प्रसरित हो जाते हैं। केवली महाराज साधु हैं । उनके आत्मप्रदेश भी साधु के हैं। इस दृष्टि से वे चौदह राजु का बिहार करते हैं।
__ आचार्यश्री ने तीसरा प्रश्न किया-सिद्ध भगवान कितने लम्बे हैं और कितने चौड़े हैं ? महासतीजी ने उत्तर में निवेदन किया-सिद्ध भगवान तीन सौ तैतीस धनुष और बत्तीस अंगुल लम्बे हैं। क्योंकि पांच सौ धनुष की अवगाहना वाले जो सिद्ध बनते हैं उनके आत्मप्रदेश तीन सौ तैतीस धनुष और बत्तीस अंगुल लम्बे रहते हैं और सिद्ध भगवान चौड़े हैं पैतालीस लाख योजन । पैतालीस लाख योजन का मनुष्य-क्षेत्र है। जहाँ पर एक सिद्ध हैं वहाँ पर अनन्त सिद्ध हैं। सभी सिद्धों के आत्म-प्रदेश परस्पर मिले हुए हैं। बीच में तनिक मात्र भी व्यवधान नहीं है। इस घनत्व की दृष्टि से सिद्ध पैतालीस लाख योजन चौड़े हैं।
चौथा प्रश्न आचार्यश्री ने किया-चौबीस तीर्थंकरों में प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव हैं और चौबीसवें तीर्थकर भगवान महावीर हैं । बताइये दोनों में से किसकी आत्मा हमारे से अधिक सन्निकट है ? उत्तर में महासतीजी ने कहाभगवान ऋषभदेव की आत्मा हमारे से अधिक सन्निकट है बनिस्वत महावीर के। क्योंकि भगवान ऋषभदेव की अवगाहना पाँच सौ धनुष की थी और महावीर की अवगाहना सात हाथ की थी। जिससे ऋषभदेव के आत्म-प्रदेश तीन सौ तैतीस धनुष और बत्तीस अंगुल है और महावीर की आत्मा के प्रदेश चार हाथ और सोलह अंगुल है। अतः ऋषभदेव की आत्मा महावीर की आत्मा से हमारे अधिक सन्निकट है।
पांचा प्रश्न आचार्यश्री ने किया-दो श्रावक हैं। वे दोनों एक ही स्थान पर बैठे हैं। एक देवसी, प्रतिक्रमण करता है और दूसरा राईसी प्रतिक्रमण करता है। ये दोनों पृथक्-पृथक् प्रतिक्रमण क्यों करते हैं ? उसकी क्या अपेक्षा है स्पष्ट कीजिए। महासतीजी ने उत्तर में कहा-दो श्रावक हैं, एक भरतक्षेत्र का और दूसरा महाविदेह क्षेत्र का । वे दोनों श्रावक विराधक हो गये और वे वहाँ से आयु पूर्ण कर अढाई द्वीप के बाहर नन्दीश्वर द्वीप में जलचर के रूप में उत्पन्न हुए। नन्दीश्वर द्वीप में देव भगवान तीर्थंकरों के अष्टाह्निक महोत्सव मनाते हैं। उन महोत्सवों में तीर्थकर भगवान के उत्कीर्तन को सुनकर उन जलचर जीवों को जातिस्मरणज्ञान होता है और वे उस ज्ञान से अपने पूर्वभव को निहारते हैं और उस जातिस्मरणज्ञान के आधार से वे वहां पर प्रतिक्रमण करते हैं। क्योंकि नन्दीश्वर द्वीप में तो रात-दिन का कोई क्रम नहीं है। अतः वे जातिस्मरणज्ञान से अपने पूर्व स्थल को देखते हैं, मन में ग्लानि होती है, अतः वे वहाँ प्रतिक्रमण करते हैं। पर जिस समय भरतक्षेत्र में दिन होता है उस समय महाविदेहक्षेत्र में रात्रि होती है, अतः एक देवसी प्रतिक्रमण करता है और दूसरा राईसी प्रतिक्रमण करता है। सन्निकट बैठे रहने पर भी वे दोनों पृथक्-पृथक् प्रतिक्रमण करते हैं।
आचार्यश्री ने छठा प्रश्न किया--पांच सौ तिरसठ जीव के भेदों में से ऐसा कौन-सा जीव है जो एकान्त मिथ्या दृष्टि है और साथ ही एकान्त शुक्ललेश्या भी। क्योंकि दोनों परस्पर विरोधी हैं। महासतीजी ने कहा-तेरह सागर की स्थिति वाले किल्विषी देव में एकान्त मिथ्यादृष्टि होती है और साथ ही वे एकान्त शुक्ललेश्यी भी हैं।
इस प्रकार उन्नीस प्रश्नों के उत्तरों को सुनकर आचार्य प्रवर और सभा प्रमुदित हो गयी और उन्होंने कहामैंने कई सन्त-सतियाँ देखीं, पर इनके जैसी प्रतिभासम्पन्न साध्वी नहीं देखी। महासती मदनकुंवरजी जिस प्रकार प्रकृष्ट प्रतिभा की धनी थी उसी प्रकार उत्कृष्ट आचारनिष्ठा भी थीं। गुप्त तप उन्हें पसन्द था । प्रदर्शन से वे कोसों दूर भागती थीं। वे साध्वियों के आहारादि से निवृत्त होने पर जो अवशेष आहार बच जाता और पात्र धोने के बाद जो पानी बाहर डालने का होता उसी को पीकर सन्तोष कर लेतीं। कई बार नन्हीं सी गुड की डेली या शक्कर लेकर मुंह में डाल लेती। यदि कोई उनसे पूछता कि क्या आज आपके उपवास है, वे कहती नहीं, मैंने तो मीठा खाया है।
उनमें सेवा का गुण भी गजब का था। उन्हें हजारों जैन कथाएँ और लोक कथाएँ स्मरण थीं। समय-समय पर बालक और बालिकाओं को कथा के माध्यम से संसार की असारता का प्रतिपादन करती। कर्म के मर्म को समझातीं। उनका मानना था कि बालकों को और सामान्य प्राणियों को कथा के माध्यम से ही उपदेश देना चाहिए जिससे वह उपदेश ग्रहण कर सके। उन्होंने मुझे बाल्यकाल में सैकड़ों कथाएँ सुनाई थीं। सन् १९४६ में तीन दिन के संथारे के साथ उदयपुर में उनका स्वर्गवास हुआ।
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