Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : अष्टम खण्ड
महासती चतुरकुंवरजी। इनमें महासती परमकुंवरजी की महासती कैलास कुंवरजी शिष्या हुई। आपकी जन्मस्थली उदयपुर थी। आपके पिता का नाम हीरालालजी और माता का नाम इंदिरा बाई था। आपका गणेशी लालजी से पाणिग्रहण हुआ था। सं० १९६३ फाल्गुन शुक्ला दसमी के दिन देलवाड़ा में आपने दीक्षा ग्रहण की। आपकी चरित्र बाँचने की शैली बहुत ही सुन्दर थी, आपकी सेवाभावना प्रशंसनीय थी। सं० २०३२ में आपका अजमेर में संथारा सहित स्वर्गवास हुआ। आपकी एक शिष्या हुई जिनका नाम महासती रतनकुंवरजी है।
महासती हुल्लासकुंवरजी की चतुर्थ शिष्या सौभाग्य कुंवरजी हैं । आपकी जन्मस्थली उदयपुर, पिता का नाम मोडीलालजी खोखावत और माता का नाम रूपाबाई था। आपश्री वर्तमान में विद्यमान हैं । आपका स्वभाव बहुत ही मधुर है। आपकी शिष्या हुई महासती मोहनकंवरजी जिनका जन्म दरीबा (मेवाड़) में हुआ और उनका पाणिग्रहण दबोक ग्राम में हुआ । वि० सं० २००६ में आपने दीक्षा ग्रहण की और सं० २०३१ में आपका स्वर्गवास उदयपुर में हुआ।
महासती हुल्लासकुंवरजी की पांचवीं शिष्या महासती चतुरकुंवरजी हैं जो बहुत ही सेवापरायणा साध्वी रत्न हैं।
(४) महासती रायकुंवरजी की चतुर्थ शिष्या हुकमकुंवरजी थी। उनकी सात शिष्याएँ हुई–महासती भूरकंवरजी-आपका जन्म उदयपुर राज्य के कविता ग्राम में हुआ । आपको थोकड़े साहित्य का बहुत ही अच्छा परिज्ञान था। पचहत्तर वर्ष की उम्र में आपका स्वर्गवास हुआ। आपकी एक शिष्या हुई जिनका नाम महासती प्रतापकुंवरजी जो प्रकृति से भद्र थीं। लखावली के भण्डारी के परिवार में आपका पाणिग्रहण हुआ था और लगभग सत्तर था, वर्ष की उम्र में आपका स्वर्गवास हुआ ।
महासती हुकुमजी की दूसरी शिष्या रूपकुंवरजी थीं। आपकी जन्मस्थली देवास (मेवाड़) की थी। लोढा परिवार में आपका पाणिग्रहण हुआ। आपने महासतीजी के पास दीक्षा ग्रहण की। वर्षों तक संयम पालन कर अन्त में आपका उदयपुर में स्वर्गवास हुआ ।
महासती हुकुमकुंवरजी की तृतीय शिष्या बल्लभकुंवरजी थीं। आपका जन्म उदयपुर के बाफना परिवार में हुआ था और आपका पाणिग्रहण उदयपुर के गेलडा परिवार में हुआ। आपने दीक्षा ग्रहण कर आगम शास्त्र का अच्छा अभ्यास किया । आपकी एक शिष्या हुई जिनका नाम महासती गुलाबकुँवरजी था। आपका जन्म 'गुलुंडिया' परिवार में हुआ था और पाणिग्रहण 'वया' परिवार में हुआ था । आपको आगम व स्तोक साहित्य का सम्यक् परिज्ञान था । उदयपुर में ही संथारा सहित स्वर्गस्थ हुई।
महासती हुकुमकुंवरजी की चौथी शिष्या सज्जनकुंवरजी थीं। आपने उदयपुर के बाफना परिवार में जन्म लिया और दुगड़ों के वहाँ पर ससुराल था। आपकी एक शिष्या हुई जिनका नाम मोहनकुंवरजी था जिनकी जन्मस्थली अलवर थी और ससुराल खण्डवा में था। वर्षों तक संयम साधना कर उदयपुर में आपका स्वर्गवास हुआ।
महासती हुकुमकुंवरजी की पांचवीं शिष्या छोटे राजकुंवरजी थीं ! आप उदयपुर के माहेश्वरी वंश की थीं।
महासती हुकुमकुंवरजी की एक शिष्या देवकुंवरजी थीं जो उदयपुर के सन्निकट कर्णपुर ग्राम की निवासिनी थीं और पोरवाड वंश की थीं और सातवीं शिष्या महासती गेंदकुँवरजी थीं। आपका जन्म उदयपुर के सन्निकट भुआना के पगारिया कुल में हुआ। चन्देसरा गाँव के बोकड़िया परिवार में आपकी ससुराल थी। आपको सैकड़ों थोकड़े कण्ठस्थ थे । आप सेवापरायण थीं। सं० २०१० में ब्यावर में आपका स्वर्गवास हुआ।
(५) महासती मदनकंवरजी-आपकी जन्मस्थली उदयपुर थी। आपकी प्रतिभा गजब की थी। आपने महासतीजी के पास दीक्षा ग्रहण की। आपको आगम साहित्य का गम्भीर अध्ययन था और थोकड़ा साहित्य पर भी आपका पूर्ण अधिकार था। एक बार आचार्यश्री मुन्नालालजी महाराज जो आगम साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान थे, उन्होंने उदयपुर के जाहिर प्रवचन सभा में महासती मदनकुँवरजी को उन्नीस प्रश्न किये थे। वे प्रश्न आगम ज्ञान के साथ ही प्रतिभा से सम्बन्धित थे। उन्होंने पूछा-बताइये महासतीजी; सिद्ध भगवान कितना विहार करते हैं ? उत्तर में महासती जी ने कहा--सिद्ध भगवान सात राजु का विहार करते हैं, क्योंकि सिद्ध जो बनते हैं वे यहाँ पर बनते हैं, यहीं पर अष्ट कर्म नष्ट करते हैं और फिर कर्म नष्ट होने से वे ऊध्र्वलोक के अग्रभाग पर अवस्थित होते हैं। क्योंकि वहाँ से आगे आकाश द्रव्य है, पर धर्मास्तिकाय नहीं। * देखिए–वर्तमान युग की साध्वियाँ-ले. राजेन्द्रमुनि साहित्यरत्न
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