Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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योग : स्वरूप और साधना
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क्षित होती हो तो भी बंधी है जिन पर इमराशावाद के स्थान
की बा
पर विचार करने का हमारा प्रयास रहेगा । अंग्रेजी में उपलब्ध साहित्य में लगभग सभी ग्रन्थों में विस्तृत ग्रन्थ सूची उपलब्ध है।
सुविधा के लिए हम 'जेन' शब्द का अनुवाद 'ध्यान' शब्द में करके मर्यादित स्वरूप में विवेचन करेंगे । ध्यान-साहित्य में कुछ विचित्र घोषणाएँ पढ़ने को मिलती हैं। उदाहरण के लिए, Sitting quietly, doing nothing, अथवा ताली की आवाज एक हाथ से, अथवा बोतल में बन्द बतख को बोतल तोड़े बगैर बाहर निकालना अथवा मैं कुछ भी स्वीकार नहीं करता और कुछ निषेध भी नहीं। ध्यान मत के अनुसार कार्य को करना' कार्य को करना है'The Zen way of doing things is to do them.' 'Zen lives in facts, fades in abstractions and is hard to find in our noblest thought.''A sense of serenity, a sense of flow, and a sense of rightness in all action. All that happens, happens right.' 'To the good I act with goodness; to the bad I also act with goodness.' Zen talks of quality of living and not standard of living.' Is-ness Now-ness One-ness.
ध्यान सम्बन्धी सभी साहित्य और सभी प्रयत्नों में इस बात की ओर संकेत किया गया है कि तर्क और शब्दों में न तो धर्म को बाँधा और नापा जा सकता है और न ही जीवन को। प्रातःकाल से लेकर रात्रि तक सभी अवस्थाओं का जीवन शब्दों से परे है, विवेचन से मुक्त है, सभी प्रकार के शाब्दिक जाल से मुक्त है, और जीवन की प्रत्येक घटना स्वीकार करने में ही मनुष्य की श्रेष्ठता दिखायी है। यदि हम अपने जीवन के कालक्रम में घटित होने वालो सभी घटनाओं का तार्किक दृष्टि से विवेचन करें तो बहुत जल्दी ही हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि जीवन की सभी गतिविधियों का विवेचन असम्भव है। स्वयं को भुलावा देने के लिए शाब्दिक जाल खड़ा कर सकते हैं, परन्तु वस्तुस्थिति यह है कि जीवन को तार्किक जाल में बाँधा ही नहीं जा सकता। इस विधान से कुछ निराशाजनक ध्वनि परिलक्षित होती हो तो भी सच्ची बात से मुंह मोड़ना अपने आपको अँधेरे में रखना है । सृष्टि में होने वाली सभी घटनाएँ किसी एक ऐसे क्रम से बँधी हैं जिन पर हम कुछ निश्चित मात्रा तक ही मर्यादा रख सकते हैं। इस क्रम को यदि हम स्वेच्छापूर्वक स्वीकार कर लें तो जीवन निराशावाद के स्थान पर विकासवाद की ओर निश्चित रूप से बढ़ेगा । ध्यानसम्प्रदाय के लोग जब Is-ness की बात करते हैं, That-ness की बात करते हैं, घटनाओं के होने की स्वीकृति देते हैं, तो इसमें हमें मानव के बौद्धिक चिन्तन और स्थिरता का भास होता है। रहस्यवादी कवि और सूफी भी हमें इन्हीं मार्गों की ओर आकृष्ट करते हैं । दूसरे शब्दों में सुखी जीवन, शान्त जीवन और विकसित जीवन ध्यान-सम्प्रदाय के अनुसार, जीवन का भौतिक विकास नहीं, वरन् अभौतिक विकास है (अभौतिक का अर्थ, आध्यात्मिक, मानसिक, साधनामय या अन्य इसी प्रकार की प्रणालियां हो सकती हैं)।
ध्यान-सम्प्रदाय सम्बन्धी बहुत सारा साहित्य छोटी-छोटी आख्यानों अथवा कहानियों के द्वारा समाज के सामने प्रस्तुत किया गया है। उदाहरण के लिए एक छोटी सी कथा दो ऐसे साधुओं के लिए हैं जिन्हें प्रवास करने के लिए नदी के किनारे एक सुन्दर कन्या नदी पार करने में सहायता मांगते हुए दिखती है। दोनों भिक्षु एक-दूसरे की
ओर देखते हैं और अचानक एक भिक्षु उस कन्या को उठा लेता है। नदी पार कर जाते हैं। दूसरा भिक्षु बहुत क्रुद्ध है और इसी अवस्था में प्रवास करते-करते आश्रम के पास पहुँचते समय दूसरा भिक्षु पहले भिक्षु से एक प्रश्न करता है कि उस कन्या को उठाते समय तुम्हें कैसा अनुभव हुआ था, तब पहले भिक्षु ने बहुत ही शान्त भाव से कहा-भंते ! मैंने उस कन्या को नदी पार करने के बाद वहीं छोड़ दिया परन्तु तुम अभी तक उसे उठाये फिरते हो। इसी प्रकार मात्सु नामक शिष्य ने हुईजान नामक गुरु से पूछा-गुरुदेव ! ध्यान में बैठने का हेतु क्या है ? हुईजान ने बड़े ही शान्त स्वभाव से उत्तर दिया-बुद्ध बनना । हुईजान चुपचाप उठा और एक पत्थर को घिसने लगा। मात्सु ने अपने गुरु से पूछा कि आप क्या कर रहे हैं ? इस पर हुईजान ने इस प्रकार कहा, कि मैं इस पत्थर का दर्पण बना रहा हूँ। कभी पत्थर भी दर्पण बनाया जा सकता है ? ऐसी शंका व्यक्त की गई । गुरु ने उत्तर दिया कि यदि ध्यान में बैठने से बुद्ध बना जा सकता है तो पत्थर को दर्पण में भी रूपान्तरित किया जा सकता है। इन दोनों कथाओं में जीवन के दो ऐसे आयाम प्रस्तुत किये गये हैं जिससे सहज जीवन और कृत्रिम जीवन का एक स्वरूप हमें दिखाया गया है। यदि मनोविश्लेषणात्मक दृष्टि से देखा जाय तो हमें ऐसा बताया जाता है कि हमें किसी भी कार्य को प्रत्यक्ष रूप में करना और उस करने की क्रिया का कालान्तर में चिन्तन या मनन करना, दो अलग-अलग स्वतन्त्र पक्ष हैं। कभी-कभी तो किसी क्रिया के करने के बाद उस क्रिया का शरीर और मन पर शायद उतना परिणाम न हो जितना विपरीत और हानिकारक परिणाम, उस क्रिया के चिन्तन-मनन से होने की सम्भावना है। ध्यान-सम्प्रदाय के अनुसार सहज जीवन की ओर संकेत मिलता है। किसी विशिष्ट समय पर घटी हुई घटनाओं का उतना प्रभाव नहीं होता जितना उन पर दीर्घकालीन चिन्तन-मनन का । उसी प्रकार प्रयत्न का आडम्बर और प्रयत्न की भावना की ओर संकेत किया गया है।
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