Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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योग : स्वरूप और साधना
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विषमता का वर्णन सौखियान ने बड़े ही सुन्दर शब्दों में किया है- "आधुनिक समय में मानब ने धर्म की अनुभूति को भुला दिया है । कुछ लोगों ने धर्म को दर्शनशास्त्र की कठोर ताकिक शब्दावली में ढालने का प्रयत्न किया है । धार्मिक वातावरण इस शैली में प्रस्थापित न होकर कुछ नई चीज खड़ी हो गयी है ।" उनका कहना है कि हम आजकल आहार के स्वाद के विषय में बड़े जागरूक हैं । सभी प्रकार के शारीरिक सुखों के उपलब्ध हेतु के विषय में सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। काव्य और साहित्य आदि के रसास्वादन का भरपूर आनन्द लेना चाहते हैं। विज्ञान की परिभाषाएँ हम अच्छी तरह समझते हैं और नित्यप्रति घटित होने वाली घटनाओं के बारे में विश्लेषणात्मक चर्चा करते हैं। परन्तु जीवन का प्राकृतिक स्वरूप हम भूल गये हैं । अपने स्वयं के स्वभाव को भी हम भूल गये हैं। शरीर सुख से परे भी कुछ है; इस बात का विचार भी हमें नहीं आता और जिस प्रेम की हम बातें करते हैं वह प्रेम स्वार्थ भावना से भरा होता है, मजबूरियों से घिरा रहता है । ध्यान-सम्प्रदाय के अनुसार धार्मिकता का अर्थ जीवन की संवेदनशीलता है। संवेदनशीलता का अर्थ जीवन और समाज में होने वाली प्रत्येक घटना के प्रति एक सहज और निस्पृह दृष्टिकोण है। इसमें शाब्दिक छल नहीं है, तर्कशास्त्र का आधार भी नहीं है और दार्शनिक भ्रम भी नहीं है। जीवन एक सहज गतिविधि है और जीवन को जीने के लिए किसी विशेष आडम्बर की आवश्यकता नहीं है। तीव्र अनुभूति, स्वतन्त्र अभिव्यक्ति
और सभी प्रकार की स्वीकृति ही जीवन का भाग है । जीवन में सभी जगह क्रियाएँ हैं। कहीं भी किसी प्रकार की प्रतिक्रिया उसमें नहीं दिखती। अस्तित्ववादी जर्मन दार्शनिक मार्टिन हेडगर्न ध्यान-सम्प्रदाय सम्बन्धी साहित्य को देखते ही अस्तित्ववादी सिद्धान्तों का समन्वय प्राप्त करता है। मनोविश्लेषणात्मक विद्वान कार्लयुग एरेकफ्राम और कॉरेनहोनी भी ध्यान-सम्प्रदाय के साहित्य में एक प्रकार की ऐसी प्रवृत्ति का आभास पाते हैं जिसे वे विकसित कर रहे हैं। उनके अनुसार "स्वयं को पूर्णरूपेण समझना और अपने मन की सर्वप्रकार की गतिविधियाँ सचेतन स्वरूप में अनुभव करना बहुत आवश्यक है।"२८
संक्षेप में विश्व के दार्शनिक जगत में मानव की मूल्यात्मक समस्याओं के बारे में अथवा जीवन मूल्यों की दृष्टि से जो विचार किया गया है, उसमें हम एक ऐसा संकेत पाते हैं कि जीवन बड़ा ही सरल है और दृष्टि स्पष्ट हो तो सुखद भी है । परन्तु दार्शनिक हथकंडों में मनुष्य किस प्रकार उलझ जाता है इसका अनुभव हर उस व्यक्ति को है जो शरीर से थोड़ा सा परे हटकर, द्रष्टा के रूप में स्वयं को देख सकता है। कितने आश्चर्य की बात है कि अलगअलग दार्शनिक पृष्ठभूमि और सामाजिक अवस्था होने के बाद भी इन सभी दर्शनों में हमें एक अनूठा साम्य दिखता है। यह साम्य एक महत्वपूर्ण बात की ओर इंगित करता है। दूसरे शब्दों में इन साधना पद्धतियों में मनुष्य की सहज प्रवृत्तियों को सामने रखकर हर प्रकार के आडम्बर से परे विचार और चिन्तनयुक्त जीवन व्यतीत करने को कहा है। इसीलिए जेन दार्शनिक Quality of living की बात करते हैं Standard of living की नहीं। Standard of living का हमें पूर्ण अनुभव है और उसका कोई अन्त नहीं। यह बात भी हमें स्पष्ट रूप से समझ में आ गयी है। Quality of living की ओर अब हमें गहराई से चिन्तन करना चाहिए।
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ध्यान : एक अनुचिन्तन
योग का आकर्षण अनादि काल से साधना में रत लोगों को रहा है। प्रस्तुत निबन्ध में ध्यान सम्बन्धी कुछ विचार योग की आधारभूत मान्यताओं को सम्मुख रखकर एक आयाम स्पष्ट करने का हेतु है। योग के नाम से कुछ प्रवाह बहुत ही प्रबल रूप से प्रचलित हुए। आसन और ध्यान ये दोनों प्रवाह समान रूप से दृष्टिगोचर होते हैं। आसनों का विकास हठयोग के साहित्य के कारण बहुत ही विस्तृत रूप से हुआ और आधुनिक शरीर-शिक्षाशास्त्र के विकास के साथ-साथ तो आसनों के विशेषज्ञ भी तैयार हो गये । ध्यान का भी आकर्षण स्वभावतः कुछ कम नहीं है। परन्तु प्रक्रिया के रूप में उसका विकास हमें उपलब्ध नहीं है । अष्टांग योग की प्रक्रिया में ध्यान शब्द का क्रम सातवाँ है। ध्यान सम्बन्धी साहित्य बहुत कम मात्रा में उपलब्ध है। पतंजलि के योगसूत्रों में ध्यान का वर्णन एक सूत्र में ही किया गया है। हठयोग के साहित्य में आसनों के वर्णन में दो प्रकार के आसनों का वर्गीकरण है। उसमें बैठकर के किये जाने वाले आसनों को ध्यान-आसन के नाम से सम्बोधित किया गया है। योग परम्परा में कुण्डलिनीयोग नाम से एक प्रवाह भी ध्यानयोग के साथ-साथ सम्बन्धित किया जाता है। ध्यान पर विचार करते समय बहुत सारे प्रश्न
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