Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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योग : स्वरूप और साधना
"हठस्य प्रथमांगत्वादसनं पूर्वमुच्यते ।
कुर्यात्तवासनं स्थैर्यमारोग्यम् चांगलाघवम् ॥" हठयोग प्रदीपिका के अनुसार यम-नियम का भी उल्लेख है, तथापि आसन को ही उन्होंने प्रथम अंग माना है । आसन करने से स्थैर्य प्राप्त होता है । शरीर सुन्दर और निरोगी हो जाता है। हठयोग प्रदीपिका के टीकाकार ब्रह्मानन्द कहते हैं कि "आसन करने से शरीर को स्थिरता प्राप्त होती है और मन की चंचलता के ऊपर भी नियन्त्रण आ जाता है।" "आसनेन रजोहंति" यहाँ पर थोड़ा सा रजोगुण और तमोगुण का सन्दर्भ भी प्राप्त है। ब्रह्मानन्द ने पतञ्जलि का एक सूत्र भी निर्दिष्ट किया है। आसनों का वर्णन करते समय विभिन्न प्रकार के आसन बताये गये हैं और उनसे होने वाले लाभ और करने की विधियाँ विस्तारपूर्वक हठयोग के इन ग्रन्थों में निर्दिष्ट हैं।
आसनों का वर्णन करते समय हठयोग प्रदीपिका में प्रथम अध्याय के बत्तीसवें श्लोक में कहा है कि शव आसन करने से थकान नष्ट होती है और चित्त को विश्रान्ति मिलती है। प्राचीन भाषा-शैली को ध्यान में रखते हुए हमें ऐसा अनुभव होता है कि शरीर की विश्रांति समझ सकना बहुत आसान है परन्तु चित्त विश्रांति एक समस्या है। चित्त-विश्रांति की चर्चा करने से पहले चित्त के सम्बन्ध में जब तक परिभाषा निश्चित न हो तब तक व्याख्या देना कहाँ तक उचित होगा, इस प्रश्न का निर्णय करना भी आवश्यक है । पतञ्जलि का योगशास्त्र चित्त, मन, बुद्धि आदि शब्दों का उपयोग करता है, परन्तु हठयोग में इन शब्दों का उपयोग विचारपूर्वक नहीं किया गया है, ऐसी शंका स्वाभाविक रूप से प्रस्तुत होती है। आसन करने से विष भी पच जाता है, शरीर में सब प्रकार की व्याधियाँ अपने आप नष्ट हो जाती हैं । आधुनिक वैज्ञानिक शोधों द्वारा कुछ लोगों ने एक नये वैचारिक आयाम को प्रस्तुत किया है। जिसके अनुसार 'यौगिक-चिकित्सा' नाम की नयी पद्धति समाज के सामने लाने का प्रयत्न किया जा रहा है।
___ स्थूल रूप से यदि देखा जाय तो अष्टांग योग में या हठयोग के कुछ ग्रन्थों के अनुसार षडांग योग में आसनों को सबसे अधिक महत्व इसलिए प्राप्त हो गया है कि हम आसन करते हैं या आसन किये जा सकते हैं, ऐसी प्रक्रिया हमें दिखती है। इसी आसन करने की प्रक्रिया ने आसन करने वाले को योगी, योगाभ्यासी, योगाचार्य आदि बना दिया है और जहाँ आसन सिखाये जाते हैं वे योगाश्रम बन गये हैं ।४१ इन आचार्यों ने अपनी-अपनी नयी परम्पराएँ प्रस्थापित करना आरम्भ कर दिया है। इस नये मोड़ ने, योग के नाम पर, एक व्यापारिक-वृत्ति की झलक दिखाना आरम्भ किया है । शोधकर्ताओं और जिज्ञासुओं को सावधानी की आवश्यकता है। इससे इस बात का भी निर्देश होता है कि हमें योग परम्परा तो मान्य है, पर इस परम्परा से सम्बन्धित उपलब्ध साहित्य पर स्वतः चिन्तन-मनन करने की प्रवृत्ति नहीं है, या पात्रता नहीं है। यदि परम्परा टिकाये रखनी है तो परम्परा का सही रूप भी सामने रखना होगा, यही युग का आह्वान है ।
हठयोग प्रदीपिका में सिद्धासन को सबसे अधिक महत्व दिया गया है।४ इन श्लोकों में यह प्रतिपादित करने का प्रयत्न किया है कि सिद्धासन द्वारा ही सब प्रकार के मल-शोधन और अभ्यास प्राप्त होते हैं। एक स्थान पर तो यहाँ तक कहा है कि सिद्धासन के समान कोई दूसरा आसन ही नहीं है। यह इस बात की ओर संकेत करता है कि आसनों की संख्या के बारे में ग्रन्थकार विचारशील थे । कुछ लोगों ने आसनों के दो प्रकार ही बताये हैं। इनके अनुसार चार बैठकर और शेष खड़े होकर, पेट के बल एवं पीठ के बल किये जाते हैं। एक आसन सिर के बल खड़े होकर भी किया जाता है । यद्यपि ऐसा आभास होता है कि प्राचीन ग्रन्थों में आसनों का वर्गीकरण किया गया था और कुछ लोगों ने वर्गीकरण के आधार पर साहित्य लिखा हो, तथापि यह वर्गीकरण कृत्रिम ज्ञात होता है। क्योंकि योगकुण्डली उपनिषद् में दो आसनों के ही दो प्रकार बताये गये हैं। उपनिषद्कार ने पद्मासन और वजासन इन दो आसनों के द्वारा ही योग-साधना की पूर्णता मानी है जबकि 'शिव संहिता' में कहा है कि कुल चौरासी आसन हैं । उनमें सिद्धासन, पद्मासन, उग्रासन और स्वस्तिकासन मुख्य हैं। इन आसनों का वर्णन करते समय ऐसा कहा गया है कि इन आसनों के करने से सर्व पापों से मुक्ति होती है, सब रोगों से मुक्ति प्राप्त होती है, सर्व प्रकार की शुद्धि और दुखों से मुक्ति होती है । आसनों की इसी प्रकार की सिद्धि हठयोग प्रदीपिका में भी कही गयी है। इससे हमें एक बात का संकेत मिलता है कि सम्भवतः प्राचीन आचार्य, अपनी शैली के अनुसार, अपनी अनुभूतियों को व्यक्त करने में समर्थ रहे हों; परन्तु आधुनिक युग में इन आसनों का महत्व समझाने में हमें कुछ अड़चनें आती हैं । आसनों का वर्णन करते हुए, एक स्थान पर यह बात बिलकुल स्पष्ट कर दी है कि वेश-भूषा धारण करने से या चर्चा और शास्त्रार्थ से
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