Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : अष्टम खण्ड
आपके अन्तर्मानस में भावनाएँ जागृत हुईं। आपने अपनी सुशिष्या महासती कुसुमवतीजी, पुष्पावतीजी, चन्द्रावतीजी आदि को किंग्स कालेज बनारस की, संस्कृत, हिन्दी साहित्व सम्मेलन, प्रयाग की साहित्यरत्न प्रभृति उच्चतम परीक्षाएँ दिलवायीं। उस समय प्राचीन विचारधारा के व्यक्तियों ने आपश्री का डटकर विरोध किया कि साध्वियों को संस्कृत, प्राकृत और हिन्दी का उच्च अध्ययन न कराया जाय और न ही परीक्षा ही दिलवायी जाएँ। तब आपने स्पष्ट शब्दों में कहा-साधुओं की तरह साध्वियों के भी अध्ययन करने का अधिकार है। आगम साहित्य में साध्वियों के अध्ययन का उल्लेख है। युग के अनुसार यदि साध्वियाँ संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं का अध्ययन नहीं करेंगी तो आगम और उसके साहित्य को पढ़ नहीं सकतीं और बिना पढ़े आगमों के रहस्य समझ में नहीं आ सकते। इसका विरोधियों के पास कोई उत्तर नहीं था। आप विरोध को विनोद मानकर अध्ययन करवाती रहीं। उसके पश्चात् स्थानकवासी परम्परा में अनेक मूर्धन्य साध्वियां तैयार हुई। आज अनेक साध्वियां एम. ए., पी. एच-डी. भी हो गयी हैं। यह था आपका शिक्षा के प्रति अनुराग ।
आपने अनेक व्यक्तियों को प्रतिबोध दिया। जब अन्य सन्त व सती जन अपनी शिष्या बनाने के लिए उत्सुक रहती हैं तब आपकी यह विशेषता थी कि प्रतिबोध देकर दूसरों के शिष्य व शिष्याएं बनाती थीं। आपने अपने हाथों से ३०-३५ बालिकाओं और महिलाओं को दीक्षाएँ दी पर सभी को अन्य नामों से ही घोषित किया। अपनी ज्येष्ठ गुरु बहिन महासती मदनकुंवरजी के अत्यधिक आग्रह पर उनकी आज्ञा के पालन हेतु तीन शिष्याओं को अपनी नेश्राय में रखा । यह थी आप में अपूर्व निस्पृहता । मुझे भी (देवेन्द्र मुनि) आद्य प्रतिबोध देने वाली आप ही थीं।
आपके जीवन में अनेक सद्गुण थे जिसके कारण आप जहाँ भी गयीं, वहाँ जनता जनार्दन के हृदय को जीता। आपने अहमदाबाद, पालनपुर, इन्दौर, जयपुर, अजमेर, जोधपुर, ब्यावर, पाली, उदयपुर, नाथद्वारा, प्रभृति अनेक क्षेत्रों में वर्षावास किये' सेवा भावना से प्रेरित होकर अपनी गुरु बहिनों की तथा अन्य साध्वियों की वृद्धावस्था के कारण दीर्घकाल तक आप उदयपुर में स्थानापन्न रहीं।
सन् १९६६ में आपका वर्षावास पाली में था। कुछ समय से आपको रक्तचाप की शिकायत थी, पर आपश्री का आत्मतेज अत्यधिक था जिसके कारण आप कहीं पर भी स्थिरवास नहीं विराजी सन् १९६६ (सं० २०२३) में भाद्र शुक्ला १३ को संथारे के साथ रात्रि में आपका स्वर्गवास हुआ । आप महान प्रतिभासम्पन्न साध्वी थीं । आपके स्वर्गवास से एक तेजस्वी महासती की क्षति हुई। आपका तेजस्वी जीवन जन-जन को सदा प्रेरणा देता रहेगा।
विदुषी महासती श्री सोहनकुंवरजी महासती की प्रथम शिष्या विदुषी महासती कुसुमवतीजी हैं। उनकी चार शिष्याएँ हैं-बाल ब्रह्मचारिणी महासती चारित्रप्रभाजी, बाल ब्रह्मचारिणी महासती दिव्यप्रभा, बाल ब्रह्मचारिणी दर्शन प्रभाजी और विदुषी महासती पुष्पवतीजी द्वितीय शिष्या हैं। उनकी तीन शिष्याएँ हैं-बाल ब्रह्मचारिणी चन्द्रावतीजी, बाल ब्रह्मचारिणी प्रियदर्शनाजी और बालब्रह्मचारिणी किरणप्रभाजी।
तृतीय सुशिष्या महासती प्रभावतीजी महाराज की चार शिष्याएँ हैं-महासती श्रीमतीजी, महासती प्रेम कुंवरजी, महासती चन्द्रकुंवरजी तथा महासती बालब्रह्मचारिणी हर्षप्रभाजी।।
इस प्रकार प्रस्तुत परम्परा वर्तमान में चल रही है। इस परम्परा में अनेक परम विदुषी साध्वियां हैं।
परम विदुषी महासती सद्दाजी की एक शिष्या फत्तूजी हुई जिनके सम्बन्ध में हम पूर्व सूचित कर चुके हैं। महासती फत्तूजी का विहार क्षेत्र मुख्य रूप से मारवाड़ रहा। उनकी अनेक शिष्याएँ हुईं और उन शिष्याओं की परम्पराओं में भी अनेक शिष्याएँ समय-समय पर हई। मारवाड़ के उस प्रान्त में जहाँ स्त्रीशिक्षा का पूर्ण अभाव था, वहाँ पर उन साध्वियों ने त्याग, तप के साथ शिक्षा के क्षेत्र में भी प्रगति की। क्योंकि कई साध्वियों के हाथों की लिखी हुई प्रतियाँ प्राप्त होती हैं जो उनकी शिक्षा-योग्यता का श्रेष्ठ उदाहरण कहा जा सकता है। पर परिताप है कि उनके सम्बन्ध में प्रयास करने पर भी मुझे व्यवस्थित सामग्री प्राप्त नहीं हो सकी। इसलिए अनुक्रम में उनके सम्बन्ध में लिखना बहुत ही कठिन है। जितनी भी सामग्री प्राप्त हो सकी है उसी के आधार से मैं यहाँ लिख रहा हूँ। यदि राजस्थान के अमर जैन ज्ञान भण्डार में व्यवस्थित सामग्री मिल गयी तो बाद में इस सम्बन्ध में परिष्कार भी किया जा सकेगा।
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