Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
Prathames
Jain Education International
१०८
श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ अष्टम खण्ड
1
किन्तु जिनका उपादान शुद्ध होता है, उन्हें निमित्त मिल ही जाता है और अनुकूल निमित्त मिलते ही वह दबी हुई ज्योति प्रज्वलित हो जाती है। तुलसीदासजी का पाणिग्रहण होने पर भी उनका मन संसार के भौतिक पदार्थों में नहीं लगा था। आचार्यसम्राट् अमरसिंहजी महाराज विचरण करते हुए जूनिया ग्राम में पधारे आचार्यश्वर के प्रवचन को श्रवणकर उनके अन्तर्मानस में वैराग्य भावना उद्बुद्ध हुई । विक्रम संवत् १७६३ की पौष बदी ग्यारस को बीस वर्ष की भरी जवानी में उन्होंने संयम साधना के कठोर कंटकाकीर्ण महामार्ग को अपनाया। माता-पिता, पत्नी और परिजनों के अति आग्रह करने पर भी वे विचलित नहीं हुए और संयम को ग्रहण कर एक आदर्श उपस्थित किया ।
संयम ग्रहण करने के पश्चात् आपश्री ने आचार्यश्री के नेतृत्व में आगम व दर्शन साहित्य का गहरा अध्ययन किया। अन्त में आपश्री को योग्यतम समझकर आचार्यश्री अमरसिंहजी महाराज ने आपको अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। आपश्री ने राजस्थान के विविध अंचलों में विचरण कर स्थानकवासी धर्म की अत्यधिक प्रभावना की । सैकड़ों व्यक्तियों को जो मिथ्यात्व के गहन अन्धकार में भटक रहे थे उन्हें सम्यक्त्व की ज्योति के दर्शन कराये। हजारों व्यक्तियों को श्रावकधर्म प्रदान किया और अनेकों को श्रमणधर्म में दीक्षित किया। अन्त में जोधपुर में वृद्धावस्था के कारण कुछ दिनों तक स्थानापन्न विराजे और पैंतालीस दिन का सन्धारा कर वि० सं० १८३० के भाद्रपद शुक्ला सप्तमी को आप स्वर्गस्थ हुए।
आपश्री बहुत ही प्रभावशाली और तेजस्वी आचार्य थे । आचार्यसम्राट् श्री अमरसिंहजी महाराज के शिष्यों में आप अग्रगण्य थे । आचार्यप्रवर जीवन के अन्तिम क्षणों तक जाग्रत रहे, जाग्रत मृत्यु विशिष्ट साधकों को ही उपलब्ध होती है जो उनके तेजस्वी जीवन की प्रतीक है। उनका जीवन युग-युग तक विश्व को प्रेरणा प्रदान करता रहेगा ।
आचार्य प्रवर श्री सुजानमलजी महाराज
महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने एक रूपक प्रस्तुत किया है कि एक बार जलती हुई लकड़ी को निहार कर
हरी लकड़ी की आँखों में आँसू आ गये । उसके अन्तर्मन की व्यथा इस रूप में व्यक्त हुई - इसमें कितना तेज भरा पड़ा है । अन्धकार बेचारा लज्जा से एक ओर खिसक गया है, चारों ओर ज्योति ही ज्योति जगमगा रही है। परमात्मा ! ऐसा तेज मुझे कब प्राप्त होगा ।
जलते हुए अंगारे ने उत्तर दिया-बहन, चेष्टाविहीन इस व्यर्थ वासना से पीड़ित होने में क्या लाभ है ? हमें जो कुछ भी प्राप्त हुआ है वह तप करके प्राप्त हुआ है। क्या वह तुम्हारे लिए यों ही टपक पड़ेगा ?
प्रत्येक आत्मा में दिव्य ज्योति छिपी हुई है। उसे प्रगट करने के लिए अखण्ड साधना करनी होती है। कवीन्द्र रवीन्द्र की भाषा में अंगारे ने वही उत्तर दिया है कि बिना तपे कोई ज्योति नहीं बनता और बिना खपे कोई मोती नहीं बनता । ज्योति बनने के लिए स्वयं को तपाना होता है, खपाना होता है, विश्व के जितने भी महापुरुष हुए उन्होंने अपने जीवन को साधना की भट्टी में तपाकर निखारा है। आचार्यप्रवर श्री सुजानमल जी महाराज का जीवन ऐसा ही जीवन था । उन्होंने उत्कृष्ट साधना कर एवं तप की आराधना कर जीवन को मांजा था और स्वर्ण के समान उसे निखारा था।
सुजानमलजी महाराज आचार्यसम्राट श्री अमरसिंहजी महाराज के तृतीय पट्धर थे। आप तुलसीदास जी महाराज के शिष्य थे। आपका जन्म राजस्थान के सरवाड ग्राम में विक्रम संवत् १८०४ भाद्रपद कृष्णा चौथ को हुआ था । आपश्री के पूज्य पिताश्री का नाम विजयचन्द जी भण्डारी और माता का नाम याजू बाई था । आपके पूज्य पिताश्री और मातेश्वरी दोनों ही सात्विक प्रकृति के धनी थे। दोनों में धर्म के प्रति गहरी निष्ठा थी। संसार में रह करके भी जल-कमलवत् वे निर्लिप्त थे । यही कारण है कि माता-पिता के सुसंस्कार पुत्र पर भी गिरे और उसके जीवन में भी त्याग वैराग्य के फूल महकने लगे। आचार्यप्रवर तुलसीदासजी महाराज विविध स्थानों पर धर्म की ज्योति
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org