Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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११.
श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन पन्थ : अष्टम खण्ड
हैं । क्या हम उसे यों ही बरबाद कर दें? यह तो निश्चित है कि एक दिन जो व्यक्ति जन्मा है उसे अवश्य ही मरना है, जो फूल खिलता है वह अवश्य ही मुरझाता है। जो सूर्य उदय होता है वह अवश्य ही अस्त होता है। किन्तु हम कब मरेंगे यह निश्चित नहीं है। अतः क्षण मात्र का भी प्रमाद न कर साधना करनी चाहिए। बोल माँ, क्या मेरा कथन सत्य है न?
हाँ बेटा, आचार्यश्री के उपदेश में पता नहीं क्या जादू है। तेरी तरह मेरे मन में भी ये विचार पैदा होते हैं । मैं क्यों संसार में फंस गयीं ? अब तो घर-गृहस्थी का सारा भार मेरे पर है । मैं उसे कैसे छोड़ सकती हूँ। तू तो बच्चा है । अभी तेरी उम्र ही क्या है ? अभी तो तू खूब खेल-कूद और मौज मजा कर।
'माँ, तुम्हें अब अनुभव हुआ है कि संसार असार है। यदि पहले न फंसती तो अच्छा था। फिर मां तुम मुझे क्यों फंसाना चाहती हो? लगता है तुम्हारा मोह का परदा अभी तक टूटा नहीं। आचार्यश्री ने आज ही बताया था न कि अतिमुक्तकुमार छह वर्ष की उम्र में साधु बने थे। वचस्वामी भी बहुत लघुवय में साधु बन गये थे तो फिर मैं साधु क्यों नहीं बन सकता? आत्मा तो न बालक है, न वृद्ध है, न युवा है। उसमें अनन्त शक्ति है। यदि उस शक्ति का विकास करे तो वह नर से नारायण बन सकता है। मानव से महामानव बन सकता है, और इन्सान से भगवान बन सकता है। फिर माँ हम साधु बनकर अपनी आत्मा का विकास क्यों नहीं कर सकते ? अतः माँ, तुम मुझे अनुमति प्रदान करो तो मैं साधु बनना चाहता हूँ।
माता ने अपने लाड़ले का सिर चूमते हुए कहा-बेटा, अभी तो तू बहुत ही छोटा है। तो साधु बनकर कैसे चलेगा? साधु बनना कोई हंसी-मजाक का खेल नहीं है । मोम के दाँतों से लोहे के चने चबाने जैसा कठिन कार्य है । तलवार की धार पर चलना सरल है, किन्तु साधना के कठोर कंटकाकीर्ण पथ पर चलना बड़ा ही कठिन है । साधु बनने के पश्चात् केशों का लुंचन करना पड़ता है । भूख और प्यास सहन करनी पड़ती है । अतः जितना कहना सरल है उतना ही कठिन है साधना का मार्ग ।
'माँ तुम तो वीरांगना हो। तुम मुझे समय-समय पर वीरता की प्रेरणा देती रही। तुमने मुझे इतिहास की वे घटनाएँ सुनायी हैं कि वीर बालक क्या नहीं कर सकता? वह आकाश के तारे तोड़ सकता है। मैं तुम्हारा पुत्र हैं, दीक्षा लेकर अपने जीवन को ही नहीं किन्तु जैन धर्म को भी चमकाऊँगा । तुम्हारे दूध की कीर्ति बढ़ाऊँगा।'
___ अच्छा बेटा ! मुझे विश्वास है कि तेरी बुद्धि बहुत ही तीक्ष्ण है । तेरे में प्रतिभा है । तू अवश्य ही जैन धर्म की प्रभावना करेगा। यदि तू दीक्षा लेगा तो मैं भी तेरे साथ ही दीक्षा लूंगी। मैं फिर संसार में नहीं रहूंगी। किन्तु बेटा, पहले तेरे पिता की अनुमति लेना आवश्यक है। बिना उनकी अनुमति के हम दोनों साधु नहीं बन सकते।
बालक जीतमल पिता के पास पहुँचा और उसने अपने हृदय की बात पिता के समक्ष प्रस्तुत की। पिता ने मुस्कराते हुए कहा-'वत्स, तुझे पता नहीं है कि साधु की चर्या कितनी कठोर होती है। तेरा शरीर मक्खन की तरह मुलायम है। तू उन कष्टों को कदापि सहन नहीं कर सकता। तथापि मैं श्रावक होने के नाते साधु बनने के लिए इन्कार नहीं करता। किन्तु बारह महीने तक मैं तुम्हारे वैराग्य की परीक्षा लूंगा और यदि उन कसौटियों पर तुम खरे उतर गये तो तुम्हें सहर्ष अनुमति दे दूंगा।'
श्रेष्ठि सुजानमलजी ने विविध दृष्टियों से पुत्र की परीक्षा ली। जब उन्हें यह विश्वास हो गया कि मेरा पुत्र वय की दृष्टि से भले ही छोटा है, किन्तु इसमें तीक्ष्ण प्रतिभा है। यह श्रमण बनकर जैनधर्म की ज्योति को जागृत करेगा। इसकी हस्तरेखाएँ यह बता रही हैं कि यह कभी भी गृहस्थाश्रम में नहीं रह सकता। यह एक ज्योतिर्धर आचार्य बनेगा । मैं स्वयं दीक्षित नहीं हो सकता तो इसे क्यों रोकूँ। उन्होंने पुत्र व पत्नी को सहर्ष दीक्षा की अनुमति प्रदान की। गर्भ के सवा नौ मास मिलने से बालक की उम्र नौ वर्ष की हो गयी थी। अतः आचार्य प्रवर सुजानमलजी महाराज ने योग्य समझकर १८३४ में मां के साथ बालक जीतमल को दीक्षा प्रदान की और उनका नाम जीतमुनि रख दिया गया।
बालक जीत मुनि ने गम्भीर अध्ययन प्रारम्भ किया। संस्कृत, उर्दू, फारसी आदि भाषाओं का अध्ययन किया। आगम, दर्शन, न्याय, व्याकरण, ज्योतिष, मंत्र-तन्त्र और आयुर्वेद शास्त्र का भी गहराई से अध्ययन किया। उनकी लिपि बहुत ही सुन्दर थी। वे दोनों हाथों और दोनों पैरों से एक साथ लिख सकते थे। प्राचीन प्रशस्तियों के आधार से यह ज्ञात होता है कि उन्होंने तेरह हजार ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ की थीं। स्थानकवासी परम्परामान्य बत्तीस आगमों
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