Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : अष्टम खण्ड
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हुआ वस्त्र रक्त से साफ हो सकता है ? वैसे ही विषय-विकारों से किसी की तृप्ति नहीं हुई है। मुझे उनके प्रति किसी भी प्रकार का आकर्षण नहीं है । आप मुझे सहर्ष अनुमति प्रदान करें जिससे मैं आचार्य प्रवर के सन्निकट प्रव्रज्या ग्रहण कर जीवन को निर्मल बना सकूँ।
पुत्र की उत्कृष्ट विरक्ति-वृत्ति को देखकर माता-पिता ने सहर्ष अनुमति प्रदान की और सत्तरह वर्ष की उम्र में सं० १९३१ में आपने दीक्षा ग्रहण की । आपकी दीक्षा समदडी में ही सम्पन्न हुई । आचार्यश्री के सान्निध्य में रहकर आपने आगम साहित्य का गम्भीर अध्ययन किया। आपकी लिपि बहुत ही सुन्दर थी। आपके जीवन की महान् विशेषता थी स्वाध्याय और ध्यान । दिन में अधिकांश समय आपका स्वाध्याय में व्यतीत होता था । आपका अभिमत था कि जैसे शरीर की स्वस्थता के लिए भोजन आवश्यक है, वैसे जीवन की पवित्रता के लिए स्वाध्याय आवश्यक है। जैसे नन्दनवन में परिभ्रमण करने से अपूर्व आनन्द की उपलब्धि होती है वैसे ही स्वाध्याय के नन्दनवन में विचरण करने से जीवन में आह्लाद होता है। स्वाध्याय वाणी का तप है। उससे हृदय का मैल धुलकर साफ हो जाता है। स्वाध्याय एक अन्तः प्रेरणा है जिससे आत्मा परमात्मा बन जाता है। स्वाध्याय से योग और योग से स्वाध्याय की साधना होती है। स्वाध्याय का अर्थ है अपनी आत्मा का अपने अन्तरात्मा में डुबकी लगाकर अध्ययन करना । मैं कौन हूँ और मेरा वास्तविक स्वरूप क्या है इत्यादि का चिन्तन करना स्वाध्याय है। स्वाध्याय से समस्त दुःखों से मुक्ति मिलती है, जन्म जन्मान्तरों में संचित किये हुए कर्म स्वाध्याय से क्षीण हो जाते हैं । स्वाध्याय अपने आप में एक तप है । उसकी साधना आराधना में साधक को कभी प्रमाद नहीं करना चाहिए। निरन्तर स्वाध्याय से मन निर्मल और पारदर्शी बन जाता है और शास्त्रों के गम्भीर भाव उसमें प्रतिबिम्बित होने लगते हैं।
रात्रि का अधिकांश समय आप जप-साधना में लगाते थे। मन को स्थिर और तन्मय बनाने के लिए अशुभ विचारों से हटकर शुभ विचारों में लीन होने के लिए जप किया जाता है। जप के निष्काम और सकाम ये दो भेद हैं। किसी कामना व सिद्धि के लिए इष्टदेव का जप करना सकाम-जप है और बिना कामना के एकान्त निर्जरा के लिए जप करना निष्काम-जप है । जप के भाष्यजप, उपांशुजप और मानसजप ये तीन प्रकार हैं। सर्वप्रथम भाष्यजप करना चाहिए, उसके पश्चात् उपांशु और उसके पश्चात् मानसजप करना चाहिए। ज्येष्ठ मुनि रात्रि के प्रथम प्रहर में प्रति क्रमण आदि आवश्यक कार्यों से निवृत्त होकर जिस समय उपाश्रय में लोग बैठे रहते थे उस समय वे सो जाते थे और ज्यों ही लोग चले जाते त्यों ही एकान्त शान्त स्थान पर खड़े होकर जप की साधना करते थे और प्रातः काल जब लोग आते तो पुनः सो जाते थे। इस प्रकार उनकी साधना गुप्त रूप से चलती थी। लोग उन्हें आलसी समझते थे, किन्तु वे अन्तरंग में बहुत ही जागरूक थे । स्वाध्याय और जप की साधना से उन्हें वचनसिद्धि हो गयी थी। अतः लोग उन्हें पंचम आरे के केवली कहते थे।
एक बार आपश्री आहोर से विहार कर वादनवाडी पधार रहे थे। रास्ते में उस समय के प्रकाण्ड पण्डित विजयराजेन्द्र सूरिजी अपने शिष्यों के साथ आपसे मिले। आपश्री ने स्नेह-सौजन्यता के साथ वार्तालाप किया। राजेन्द्रसूरिजी ने अहंकार के साथ कहा कि आप मेरे से शास्त्रार्थ करें। आपश्री ने कहा आचार्यजी शास्त्रार्थ से कुछ भी लाभ नहीं है । न आप अपनी मान्यता छोड़ेंगे, और न मैं अपनी मान्यता छोडूंगा। फिर निरर्थक शास्त्रार्थ कर शक्ति का अपव्यय क्यों किया जाय ? शास्त्रार्थ में राग-द्वेष की वृद्धि होती है, किन्तु अन्य कुछ भी लाभ नहीं होता । अतः आप अपनी साधना करें और मैं अपनी साधना करूँ, इसी में लाभ है।
राजेन्द्र सूरिजी ने जरा उपहास करते हुए कहा-ये ढूंढिया पढ़ा हुआ नहीं है । लगता है मूर्खराज शिरोमणि है। इसीलिए शास्त्रार्थ से कतराता है। राजेन्द्र सूरिजी के सभी शिष्य खिलखिला कर हँस पड़े।
महाराजश्री ने उसी शान्तमुद्रा में कहा-अभी इतनी शास्त्रार्थ की जल्दी क्यों कर रहे हैं ? कल ही आपका शास्त्रार्थ हो जायगा। यह कहकर महाराजश्री अपने लक्ष्य की ओर चल दिये और राजेन्द्र सूरिजी भी आहोर पहुँच गये । आहोर पहुँचते ही दस्त और उलटिएँ प्रारंभ हो गयीं। वैद्य और डाक्टरों से उपचार कराया गया किन्तु कुछ भी लाभ नहीं हुआ। इतनी अधिक दस्त और उलटी हुई कि राजेन्द्रसूरिजी बेहोश हो गये। सारा समाज उनकी यह स्थिति देखकर घबरा गया । जरा-सा होश आने पर उन्हें ध्यान आया कि मैंने अभिमान के वश उस अध्यात्मयोगी सन्त का जो अपमान किया जिसके फलस्वरूप ही मेरी यह दयनीय स्थिति हुई है। उन्होंने उसी समय अपने प्रधान शिष्य विजय धनचन्द्रजी सूरि को बुलाकर कहा-तुम अभी स्वयं वादनवाडी जाओ और मुनि ज्येष्ठमल जी महाराज से मेरी ओर से जाकर क्षमायाचना करो । मुझे नहीं पता था कि वह इतना चमत्कारी महापुरुष है । यदि तुमने विलंब किया तो
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कि मैने अभिमान उसी समन जी महाराज किया तो
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