Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : अष्टम खण्ड
और साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका चारों संघ को बुलाकर कहाआपने शान्त और स्थिर मन से निश्शल्य होकर आलोचना की। किया—गुरुदेव ! आपश्री का शरीर पूर्ण स्वस्थ है । इस असमय में
यह
संवत् १९७४ में आप समदडी पधारे मेरा अब अन्तिम समय सन्निकट आ चुका है। संल्लेखना व संथारा किया। श्रावकों ने निवेदन संथारा कैसे ?
आपश्री ने कहा- मुझे तीन दिन का संथारा आयेगा । वैशाख शुक्ला चतुर्थी के दिन मध्याह्न में एक बजे जिस समय पाली से जो ट्रेन समदडी स्टेशन पर आती है, उसके यात्रीगण समदडी गाँव में आएँगे और मेरे दर्शन करेंगे, उसी समय मेरा स्वर्गवास हो जायगा। जैसे महाराजश्री ने कहा था--उसी दिन उसी समय आपश्री का स्वर्गवास हुआ, स्वर्गवास के समय हजारों लोग बाहर से दर्शनार्थ उपस्थित हुए थे ।
अध्यात्मयोगी ज्येष्ठमलजी महाराज अपने युग एक महान चमत्कारी वचनसिद्ध महापुरुष थे । आपका जीवन सादगीपूर्ण था । आप आडम्बर से सदा दूर रहते थे और गुप्त रूप से अन्तरंग साधना करते थे। आपकी साधना मन्दिर के शिखर की तरह नहीं किन्तु नींव की ईंट की तरह थी। आज भी जो श्रद्धालु आपके नाम का श्रद्धा से स्मरण करते हैं वे आधि-व्याधि-उपाधि से मुक्त होते हैं । आपके नाम में भी वह जादू है जो जन-जन के मन में आह्लाद उत्पन्न कर देता है । आप महान प्रभावक सन्त थे । आपसे जैन शासन की अत्यधिक प्रभावना हुई ।
ॐ
महास्थविर श्री ताराचन्दजी महाराज
विश्व के मूर्धन्य मनीषियों ने जीवन के सम्बन्ध में गहराई से चिन्तन किया है । यह सत्य है कि संस्कृति की भिन्नता के कारण चिन्तन की पद्धति पृथक्-पृथक् रही । पाश्चात्य संस्कृति भौतिकता प्रधान होने से उन्होंने भौतिक दृष्टि से जीवन पर विचार किया है, तो पौर्वात्य संस्कृति ने अध्यात्म-प्रधान होने से आध्यात्मिक दृष्टि से जीवन के सम्बन्ध में चिन्तन किया। भारतीय जीवन बाहर से अन्दर की ओर प्रवेश करता है तो पाश्चात्य जीवन अन्दर से बाहर की ओर अभिव्यक्ति पाता है । महात्मा ईसा ने बाइबल में जिस जीवन की परिभाषा पर चिन्तन किया है उस परिभाषा को शेक्सपियर मे अत्यधिक विस्तार दिया है। वेद, उपनिषद्, आगम और त्रिपिटक साहित्य में जीवन की जो व्याख्या की गयी है वह दार्शनिक युग में अत्यधिक विकसित हो गयी । भारतीय संस्कृति में जीवन के तीन रूप स्वीकार किये हैं— ज्ञानमय, कर्ममय और भक्तिमय । वैदिक परम्परा में जिस त्रिपुटी को ज्ञान, कर्म और भक्ति कहा है उसे ही जैन दर्शन में सम्यदर्शन, सम्यज्ञान और सम्यचारित्र कहा है और बौद्ध परम्परा में यही प्रज्ञा, शील और समाधि के नाम से विश्रुत है। यह पूर्ण सत्य है कि श्रद्धा ज्ञान और आचार से जीवन में पूर्णता आती है। पाश्चात्य विचारक टेनिसन ने भी लिखा है
"Self-reverence, Self-knowledge and Self-control, these three alone lead life to sovereign power."
आत्मश्रद्धा, आत्मज्ञान और आत्मसंयम इन तीन राष्ट्रपिता महात्मा गान्धी ने जीवन पर चिन्तन उसकी सिद्धि का मुख्य एवं एकमात्र उपाय पारमार्थिक साहित्यिक दृष्टि से जीवन पर विचार करते हुए लिखा है— जीवन जागरण है, पृथ्वी के तमसाच्छन्न अन्धकारमय पथ से गुजरकर दिव्यज्योति से साक्षात्कार भी नहीं है। जड़, चेतन के बिना विकास- शून्य है और चेतन, जड़ के बिना प्रतिक्रिया ही जीवन है ।
तत्त्वों से जीवन परम शक्तिशाली बनता है ।
करते हुए लिखा है-जीवन का उद्देश्य आत्मदर्शन है और भाव से जीव मात्र की सेवा करना है। महादेवी वर्मा ने सुषुप्ति नहीं; उत्थान है पतन नहीं; करना है; जहाँ द्वन्द्व और संघर्ष कुछ आकार-शून्य है । इन दोनों की क्रिया
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