Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन प्रन्थ : अष्टम खण्ड
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आचार्यश्री-जहाँ हम ठहरे हुए हैं वहाँ उपदेश श्रवण करने के लिए लोग आयेंगे ही। हम उन्हें कैसे इन्कार कर सकते हैं ?
दानवी शक्ति-अच्छा, तो ऐसा कीजिएगा पुरुषों को आने दीजिएगा, किन्तु महिलाओं को यहाँ आने का निषेध कर दीजिएगा।
आचार्यश्री-आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में पुरुष और महिलाओं का भेद नहीं किया जाता। जिस प्रकार पुरुष आध्यात्मिक साधना करता है उसीप्रकार महिलाएं भी साधनाएँ कर सकती हैं। पुरुषों से भी महिलाओं का हृदय अधिक भावुक होता है। वे साधना के मार्ग में सदा आगे रहती हैं। अतः उन्हें आध्यात्मिक साधना से वंचित करना हमारे लिए कैसे उचित है ? हम जहाँ रहेंगे वहाँ पर रात्रि में नहीं, किन्तु दिन में उपदेश-श्रवण हेतु पुरुषों के साथ महिलाएं भी आयेंगी।
____ दानवी शक्ति ने कहा-आपका कथन सत्य है, किन्तु ऐसा करें कि जिन महिलाओं को नहीं आना है, उन्हें न आने देवें।
आचार्यश्री ने कहा--मैं स्वयं भी नहीं चाहता हूँ कि वे महिलाएँ यहाँ आवें, किन्तु हम किन्हें पूछने जायेंगे कि तुम्हें आना है या नहीं आना है ?
दानवी शक्ति ने कहा-आप ऐसा कीजिए कि मेरा यह जो स्थान विशेष है वहाँ पर कोई महिला नहीं आने पावे, अतः अपना पट्टा यहाँ पर ले लेवें।
आचार्यश्री ने कहा-आपका यह कथन उचित है। हम आपके स्थान पर पट्टा ले लेंगे किन्तु पट्टे को तो आपने पहले से ही तोड़ रखा है । अत: इसे पहले आप ठीक कीजिए।
दानवी शक्ति ने उसी समय पट्टे को ठीक कर दिया और आचार्यश्री से प्रार्थना की कि आप आनन्द से यहाँ विराजिए और अत्यधिक धर्म की प्रभावना कीजिए। आपको यहाँ विराजने पर किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं होगा। दानवी शक्ति आचार्यप्रवर को नमस्कार कर और अपने अपराधों की क्षमा-याचना कर वहाँ से विदा हो गयी।
प्रातः होने पर ज्यों ही सहस्ररश्मि सर्य का उदय हआ यतिभक्त इसी विचार से आसोप ठाकर की हवेली में पहुंचे कि आचार्य अमरसिंहजी अपने शिष्यों सहित समाप्त हो गये होंगे। किन्तु आचार्यप्रवर व अन्य सन्तों को प्रसन्न मुद्रा में स्वाध्याय-ध्यान आदि करते हुए देखा तो उनके आश्चर्य का पार न रहा। एक दूसरे को देखकर परस्पर कहने लगे कि दानवी शक्ति तो इतनी जबरदस्त थी कि किसी की भी शक्ति नहीं थी जो इससे जूझ सके। इस दानवी शक्ति ने तो अनेकों को खतम कर दिये थे। पता नहीं इनके पास ऐसी कौनसी विशिष्ट शक्ति है जिससे इतनी महान् शक्ति भी इनके सामने परास्त हो गयी। लगता है यह कोई महान् योगी है। इसके चेहरे पर ही अपूर्व तेज झलक रहा है। आँखों से अमृत बरस रहा है। हमें इनके पास अवश्य चलना चाहिए और इनसे धर्म का मर्म भी समझ लेना चाहिए।
आचार्यश्री की यशःसौरभ जोधपुर में फैल गयी। भौंरों की तरह भक्त मंडलियाँ मंडराने लगीं। हजारों लोग आचार्यश्री के दर्शन के लिए उपस्थित हुए। आचार्यप्रवर ने जिज्ञासु श्रोताओं को देखकर अपना प्रवचन प्रारम्भ किया। आचार्यश्री ने कहा-जैन संस्कृति का मूल आधार है त्याग, तपस्या और वैराग्य । उसने जितना बाह्य शुद्धता पर बल दिया है उससे भी अधिक, अन्तर्मन की पवित्रता को महत्व दिया है। यह संस्कृति भोगवादी नहीं; त्याग, तपस्या, वैराग्य की संस्कृति है। इस संस्कृति के मूल में भोग नहीं त्याग है । भोगवाद पर त्यागवाद की विजय है, तन पर मन का जयघोष, वासना पर संयम का जयनाद ।
मधुर मुसकान के साथ आचार्यश्री के भाषणों ने जन-मन-नयन को चुम्बक की तरह अपनी ओर खींच लिया। आचार्यश्री के भावों में गाम्भीर्य था, उनकी शैली में ओज था, शैली बड़ी सुहावनी थी, जो नदी के प्रवाह की तरह अपने प्रतिपाद्य विषय की ओर बढ़ती थी। उनके सांस्कृतिक प्रवचनों में जैन संस्कृति की आत्मा बोलती थी। आचार्यश्री के प्रवचनों से प्रभावित होकर हजारों जन जैनधर्म के प्रति आकर्षित हुए।
भण्डारी खींवसीजी जो बाहर गये हुए थे, वे लौटकर पुनः जोधपुर पहुँचे तो उन्होंने देखा कि आचार्यप्रवर को भयंकर उपद्रवकारी स्थान में उतारा गया है । उन्होंने आचार्यश्री से पूछा-भगवन् ! किस दुष्ट ने आपको यहाँ पर
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