Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन प्रन्थ : अष्टम खण्ड
समय तक तुम रुको। अत: माता-पिता के आग्रह को सम्मान देकर वे गृहस्थाश्रम में रहे। किन्तु उनका मन विषयभोगों से उसी तरह उपरत था जैसे कीचड़ से कमल । इक्कीस वर्ष की पूर्ण युवावस्था में उन्होंने अपनी पत्नी को विषयभोगों की निस्सारता और ब्रह्मचर्य की महत्ता समझाकर अ-ब्रह्मचर्य का त्याग करा दिया। वे अपने निश्चय पर चट्टान की तरह दृढ़ थे। माता की ममता, पिता का स्नेह, और पत्नी का उफनता हुआ मादक प्यार उन्हें अपने ध्येय से डिगा नहीं सका। एक दिन अवसर पाकर अपने मन की बात आचार्यप्रवर लालचन्दजी महाराज से कही-गुरुदेव, क्या आप मुझे अपने श्रीचरणों में शिष्य रूप से स्वीकार कर सकते हैं ? गुरु ने शिष्य की योग्यता देखकर कहावत्स ! मैं तुम्हें स्वीकार कर सकता हूँ, किन्तु माता-पिता और पत्नी की आज्ञा प्राप्त करनी होगी। उनसे अनुमति प्राप्त करना तुम्हारा काम है। गुरु की स्वीकृति प्राप्त करके अमरसिंह बहुत प्रसन्न हुए।
राही को राह मिल ही जाती है, यह संभव है देर-सबेर हो सकती है, किन्तु राह न मिले यह कभी संभव नहीं। अमरसिंह ने माता-पिता और पत्नी से स्पष्ट शब्दों में कहा कि मैं अब संसार में नहीं रहेगा। मुझे साध बनना है । माता ने आँसू बहाकर उसके वैराग्य को भुलाना चाहा । पिता ने भी कहा-पुत्र, तुम्हीं मेरी वृद्धावस्था के आधार हो, मुझे छोड़कर कहाँ जा रहे हो? पत्नी ने भी अपने मोह-पाश में बाँधने का प्रयास किया । किन्तु दृढ़ मनोबली अमरसिंह ने सभी को समझाकर आज्ञा प्राप्त कर ली और भरपूर युवावस्था में संवत् १७४१ में चैत्र कृष्णा दशमी को भागवती दीक्षा ग्रहण की। अब वे अमरसिंह से अमरसिंह मुनि हो गये।
अमरसिंह मुनि ने दीक्षा ग्रहण करते ही संयम और तप की साधना प्रारम्भ की। वे सदा जागरूक रहा करते थे, प्रतिपल-प्रतिक्षण संयम साधना का ध्यान रखते थे। विवेक से चलते, विवेक से उठते, विवेक से बैठते, विवेक से बोलते, प्रत्येक कार्य वे विवेक के प्रकाश में करते। संयम के साथ तप और जप की साधना करते, जैन आगम साहित्य का उन्होंने गहन अध्ययन किया। अपनी पैनी बुद्धि से, प्रखर प्रतिभा से और तर्कपूर्ण मेधाशक्ति से अल्प काल में ही. आगम के साथ दर्शन, न्याय, व्याकरण, साहित्य का विशेष अध्ययन किया ।
तप, संयम के साथ विशेष अध्ययन में परिपक्व होकर आचार्य श्री लालचन्दजी महाराज की आज्ञा से आपने धर्मप्रचार का कार्य आरम्भ किया। अपनी विमल-ज्ञान राशि को पंजाब और उत्तर प्रदेश के जन जीवन में महामेघ के समान हजार-हजार धाराओं में बरसाकर बिखेर दिया। अनेक स्थलों पर बलि-प्रथा के रूप में पशुहत्या प्रचलित थी, उसे बन्द करवाया । अन्धविश्वास और अज्ञानता के आधार पर फैले हुए वेश्यानृत्य, मृत्युभोज और जातिवाद का आपने दृढ़ता से उन्मूलन किया। श्रमणसंघ व श्रावकसंघ में आये हुए शिथिलाचार और भ्रष्टाचार पर आप केसरी सिंह की तरह झपटते थे। आपकी वाणी में ओज था, सत्य का तेज था और विवेक का विशुद्ध प्रकाश था । अतः जिस विषय पर आपश्री बोलते, साधिकार बोलते और सफलता देवी आपके चरण चूमने के लिए सदा लालायित रहती थी। संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, उर्दू, अरबी, फारसी इन छह भाषाओं पर आपने पूर्ण अधिकार प्राप्त कर लिया था और आप साधिकार छह भाषाओं में लेखन, भाषण कर सकते थे। आपने अनेक साधु-साध्वियां, श्रावक और श्राविकाओं को शास्त्रों का अध्यापन करवाया। आप मानवरूप में साक्षात् बहती हुई ज्ञान-गंगा थे। जिधर भी वह ज्ञानगंगा प्रवाहित हुई उधर अध्ययन, मनन-चिन्तन के सूखे और उजड़े हुए खेत हरे-भरे हो गये ।।
अमरसिंहजी महाराज का आगम और दर्शनशास्त्र का ज्ञान बहुत ही गम्भीर था। आपके सम्बन्ध में लिखी हुई अनेक अनुश्रुतियाँ मुझे प्राचीन पन्नों में मिली हैं। एक बार आपश्री जम्मू में विराज रहे थे । श्रावक समुदाय आपके सन्निकट बैठा हुआ चर्चा कर रहा था। उस समय कुछ बहनें सुमधुर गीत गाती हुई जा रही थी। अमरसिंहजी महाराज कुछ समय तक रुक गये । वार्तालाप में प्रसंग में उन्होंने बताया गाने वाली बहनों में एक बहिन जिसका स्वर इस प्रकार का था उसका रंग श्याम है उसकी उम्र पच्चीस वर्ष की है और वह एक आँख से कानी है। महाराजश्री ने उस बहन को देखा नहीं था और न वह पूर्व परिचिता ही थी । अन्य बहनों के सम्बन्ध में भी उन्होंने वय, रंग और उम्र बतायी। लोगों को बहुत ही आश्चर्य हुआ। उन्होंने शीघ्र ही जाकर जांच की तो उन्हें सत्य तथ्य का परिज्ञान हो गया । श्रावकों ने पूछा-गुरुदेव आपको कैसे पता लगा? आपश्री ने फरमाया स्थानाङ्ग, अनुयोगद्वार आदि आगम साहित्य में स्वरों का निरूपण है, उसी के आधार पर मैंने कहा है। उन्होंने केवल शास्त्र पढ़े ही नहीं थे किन्तु उन शास्त्रों को हृदयंगम भी किया था।
एक बार आपश्री लुधियाना विराज रहे थे। उस समय एक सज्जन घबराते हुए आये कि गुरुदेव शीघ्र ही मांगलिक फरमा दीजिये। मुझे आवश्यक कार्य के लिए बाहर जाना है। विलम्ब हो गया है। मुनि अमरसिंहजी ने
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