Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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श्रमण-परम्परा में क्रियोद्धार
८५.
(२) भीवाजी-ये सिरोही के ओसवाल थे, इनका गोत्र साथडिया था। इन्होंने सं. १५४० में अहमदाबाद में ४५ व्यक्तियों के साथ भाणाजी ऋषि के पास दीक्षा ग्रहण की। संघवी तोला आपका भाई था ।
(३) नूनाजी-इन्होंने भीदाजी के पास सं. १५४५ या १५४६ में दीक्षा ग्रहण की थी। ये सिरोही के निवासी ओसवाल वंशीय थे।
(४) भीमाजी-इन्होंने १५५० में नूनाजी के पास दीक्षा ग्रहण की थी। ये पाली के निवासी लोढा गोत्रीय ओसवाल थे।
(५) जगमालजी-इन्होंने सं. १५५० में दीक्षा ग्रहण की और भीमाजी के पट्टधर बने । आप उत्तरार्ध वासी सुराणा गोत्रीय ओसवाल थे । मणिलालजी महाराज ने आपको नागपुरा का निवासी बताया है ।
(६) सखाजी--इन्होंने १५५४ में दीक्षा ग्रहण की ऐसा लोंकागच्छीय बड़े पक्ष की पट्टावली से ज्ञात होता है। ये दिल्ली के निवासी थे । जाति से ओसवाल थे । स्वर्गीय मणिलालजी महाराज ने लिखा है कि आप बादशाह के वजीर थे। जब आप श्रमण बनने के लिए उद्यत हुए तब बादशाह ने जिज्ञासा प्रस्तुत की-तुम श्रमण क्यों बनते हो? उत्तर में आपने कहा कि इस विराट विश्व में जो भी जन्म लेता है वह एक दिन अवश्य ही मरता है, किन्तु मैं ऐसा मरण चाहता हूँ कि जिसमें पुन:-पुनः मरना न पड़े। बादशाह के पास इसका कोई उत्तर नहीं था। उन्होंने दीक्षा ली, बहुत वर्षों तक संयम की आराधना की और कहा जाता है कि एक माह के संथारे के पश्चात् आपका स्वर्गवास हुआ।
(७) रूपजी-ये अणहिलपुर पाटन के निवासी थे । ओसवाल वेद गोत्रीय पिता देवा, माता मिरधाई, और जन्म संवत् १५४३ । १५६८ माघ शुक्ला पूर्णिमा के दिन स्वयमेव दीक्षा ग्रहण की । लोंकागच्छ की बड़े पक्ष की पट्टावली में यह उल्लेख है कि रूपाशाह ने शत्रुजय का संघ निकाला था, किन्तु बाद में सखाजी का अहमदाबाद में प्रवचन सुनकर ५०० व्यक्तियों के साथ प्रवजित हुए। और सखाजी के पट्टधर हुए। इन्होंने पाटनगच्छ गुजराती लोंकागच्छ की स्थापना की। इनके समय में हीरागुरु नामक यतिप्रवर ने नागोरी लोंकागच्छ की स्थापना की। इसी समय उत्तरार्द्ध लोहारी लोंकागच्छ स्थापित हुआ। उसके सम्बन्ध में प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध नहीं है। तथापि विज्ञों का मानना है कि जीवाजी महाराज की परम्परा के किसी सन्त ने इसकी स्थापना की थी। उत्तरार्द्ध गच्छानुयायी सखाजी के शिष्य अर्जुन के शिष्य दुर्गादास ने सं. १६२५ में खंदक चौपाई की रचना की थी।
(८) जीवाजी-ये सूरत के देश-लहरा गोत्रीय तेजपाल की पत्नी कपूरा बाई के पुत्र थे। जन्म सं. १५५० । दीक्षा सं. १५७८ माघ शुक्ला दूज गुरुवार' । 'रूपऋषि भास' में लेखक ने जीवराजजी का दीक्षा संवत् १५७८ सुचित किया है । 'जीवराजजी भास' में वही कवि सं. १५६८ सूचित करता है। जबकि १५६८ में स्वयं रूपजी दीक्षा स्वीकार करते हैं। कहा जाता है कि दीक्षा ग्रहण करते समय आपकी उम्र लगभग २८ वर्ष की थी। संवत् १६१२ वैशाख शुक्ला छठ को बड़े वरसिंघजी को पद पर स्थापित किया था तथा स्वयं १६१३ ज्येष्ठ शुक्ला छठ सोमवार को पाँच दिन का अनशन लेकर ६३ वर्ष की आयु में स्वर्गवासी हुए थे। इन्हीं के नाम से गुजराती लोंकागच्छ प्रसिद्ध हुआ था।
जीवाजी ऋषि के अनेक शिष्य थे। उनमें से सं. १६१३ में वीरसिंह जी ऋषि को बड़ोदा में आचार्य पद प्रदान किया गया और दूसरी ओर बालापुर में कुंवरजी ऋषि को आचार्य पद दिया गया जिससे गुजराती लोंकागच्छ दो भागों में विभक्त हो गया। प्रथम पक्ष मोटीपक्ष और द्वितीय पक्ष न्हानीपक्ष के नाम से प्रसिद्ध हुए। उनकी पट्टावली इस प्रकार है
मोटीपक्ष की पट्टावली ६. वरसिंघजी ऋषि बड़े
१६. जगरूपजी ऋषि १०. लधुवरसिंघजी
२०. जगजीवनजी ऋषि जसवन्त ऋषि जी
२१. मेघराजजी ऋषि १२. रूपसिंह जी ऋषि
२२. सोमचन्द्रजी ऋषि १३. दामोदरजी ऋषि
२३. हरखचन्द्रजी ऋषि १४. कर्मसिंहजी ऋषि
२४. जयचन्द्रजी ऋषि १५. केशवजी ऋषि
२५. कल्याणचन्द्रजी ऋषि १६. तेजसिंहजी ऋषि
२६. खूबचन्द सूरीश्वर १७. कानजी ऋषि
२७. न्यायचन्द्र सूरीश्वर १८. तुलसीदासजी ऋषि
मैं वही कवि संत समय आपकी उम्र लगा१३ ज्येष्ठ
११.
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