Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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जैन-धर्म-परम्परा एक ऐतिहासिक सर्वेक्षण
आचार्य हरिभद्र हरिभद्र नाम के कई आचार्य हुए है। पुरातत्ववेता विजयजी डा० हर्मन जेकोबी ने याकिनी महत्तरासूनु हरिभद्र को प्रथम हरिभद्र माना है। वे उनका समय सन् ७०० से ७७० (वि० सं. ७५७ से ८२७) मानते हैं। उनका जन्म चित्तौड़ में हुआ । वे जाति के ब्राह्मण थे । जितारि राजा के राज पुरोहित थे। उनकी प्रतिज्ञा थी कि जो मुझे शास्त्रार्थ में पराजित करेगा मैं उसका शिष्य बन जाऊँगा । याकिनीमहत्तरा स्वाध्याय कर रही थीं । उनके कानों में यह गाथा गिरी :
"चक्की हरियण
केस
केसव चक्की केसव दु चक्की केसव चक्की य ॥"
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उन्होंने चिन्तन किया किन्तु अर्थ समझ में नहीं आया। अतः प्रतिज्ञा के अनुसार वे शिष्य बनने के लिए तत्पर हो गये और साध्वी महत्तरा की आज्ञा से वे आचार्य जिनभट्ट के शिष्य हुए। प्रभावकचरित्र के अनुसार जिनभट्ट उनके गच्छपति गुरु थे, जिनदत्त दीक्षागुरु थे याकिनी महत्तरा धर्मजननी थी, उनका कुल विद्याधर था, गच्छ एवं सम्प्रदाय श्वेताम्बर था। कहा जाता है उन्होंने चौदह सौ चव्वालीस ग्रंथ लिखे किन्तु अभी तक तिहत्तर ग्रंथ मिले हैं। आपने सर्वप्रथम आगम ग्रंथों पर संस्कृत भाषा में टीकाएँ लिखी। उसके पूर्व नियुक्तियाँ भाष्य और पूर्णियाँ विद्यमान थे। आपने आवश्यक, दशवैकालिक, जीवाभिगम, प्रज्ञापना, नन्दी, अनुयोगद्वार और पिण्डनिर्युक्ति पर टीकाएँ लिखीं। पिण्डनिर्मुक्ति की अपूर्ण टीका वीराचार्य ने पूर्ण की।
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आचार्य हरिभद्र की महान विशेषता यह है कि जितनी सफलता के साथ उन्होंने जैनदर्शन पर लिखा उतनी ही सफलता से उन्होंने वैदिक और बौद्ध दर्शन पर भी लिखा। साम्प्रदायिक अभिनिवेश का उनमें अभाव था । खण्डनमण्डन के समय में भी वे मधुर भाषा का ही प्रयोग करते हैं। उमास्वाति, सिद्धसेन दिवाकर, जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने जिस प्रकरणात्मक पद्धति का प्रचलन किया था उन प्रकरणों की रचनाओं को आचार्य हरिभद्र ने व्यवस्थित रूप दिया ।
बप्पभट्टसूरि- इनकी माता का नाम भट्टी और पिता का नाम ब्रह्म था। ये भारद्वाज गोत्रीय ब्राह्मण
इनकी स्मरणशक्ति बहुत ही तीक्ष्ण थी। एक साथ एक हजार श्लोक एक दिन में वे कंठस्थ कर लेते थे । उनके दीक्षा गुरु का नाम सिद्धसेन था । आठवीं शताब्दी के प्रारम्भ में गुरु ने इन्हें आचार्य पद प्रदान किया। ग्वालियर के मौडा (बंगाल) के अन्तर्गत लक्षणावति के राजा को स्वर्गवास हो गया ।
इनका जन्म हुआ। कहा जाता है कि ग्यारह वर्ष की लघु वय में राजा को इन्होंने जैन-धर्म में दीक्षित किया। कन्नौज के राजा तथा भी आपने प्रतिबोध दिया था। पंचानवे वर्ष की आयु में आपका
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थे
आचार्य शीलांक- इनका विशेष परिचय अनुपलब्ध है। इनका अपर नाम शीलाचार्य व तत्त्वादित्य भी था । प्रभावकचरित्र के अनुसार उन्होंने नौ अंगों पर टीकाएँ लिखी थीं, किन्तु इस समय आचारांग और सूत्रकृताङ्ग की ही टीका मिलती है। ये दोनों टीकाएँ महत्त्वपूर्ण हैं। इसमें दार्शनिक चिन्तन भी है। विषय को स्पष्ट करने के लिए अन्य श्लोक व गाथाओं का उपयोग भी किया है, किन्तु उनके रचियता का नाम निर्देश नहीं है। इनका कुल
निवृत्ति था ।
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श्रीसिद्धषिसूरिये श्रीमाल के राज्य मंत्री श्री सुप्रभदेव के पुत्र थे। इनके गुरु का नाम दुर्गस्वामी था । इनकी अनेक रचनाएँ हैं, उसमें 'उपमितिभवप्रपंच' नामक श्रेष्ठ रचना है ।
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आचार्य अभयदेव - नवांगी टीकाकार आचार्य अभयदेव महान् प्रतिभासम्पन्न थे। प्रभावकचरित्र के अनुसार इनकी जन्मस्थली धारानगरी थी। वर्ण की दृष्टि से वैश्य थे। पिता का नाम महीधर और माता का नाम धनदेवी था वे जिनेश्वरसूरि के शिष्य थे। इन्होंने स्थानांग समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति ताताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण, विपाक, औपपातिक इन आगमों पर टीकाएँ लिखीं, जिनमें पाण्डित्यपूर्ण विवेचनाशक्ति सचमुच ही प्रेक्षणीय है । आगम रहस्यों को बहुत ही सरलता और सुगमता से व्यक्त किया है । इन वृत्तियों के अतिरिक्त प्रज्ञापना, पंचाशकसूत्रवृत्ति, जयतिहुअण स्तोत्र, पंचनिग्रंथी, षट्कर्म, ग्रंथ-सप्तति, पर भी इन्होंने भाष्य लिखा । लगभग साठ हजार श्लोकों का निर्माण किया ।
कलिकालसर्वज आचार्य हेमचन्द्र - प्रभावकचरित्र के अनुसार आपका जन्म वि० सं० १९४५ कार्तिक पूर्णिमा को अहमदाबाद के सन्निकट धन्धुका ग्राम में हुआ। आपके पिता का नाम चाचदेव और माता का नाम पाहिनी था । गृहस्थाश्रम में उनका नाम चंगदेव था और गुरु का नाम देवचन्द्र था । देवचन्द्र ने जब चंगदेव को देखा तो बड़े
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