Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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उत्तराध्ययन, गीता और धम्मपद : एक तुलना
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ये चार आर्य सत्य भी कहे जाते हैं । दुःख-जन्म, जरा, मरण, शोक-परिदेव, दौर्मनस्य, (रोना-पीटना दुःख है, पीड़ित होना दुःख है), चिन्तित होना दुःख है, परेशान होना दुःख है, इच्छा की पूर्ति न होना दुःख है, ये सब दुःख हैं और सब दुःखों का कारण तृष्णा है । इसलिए तृष्णा को जड़ से खोदने का उपदेश दिया है
तं वो वदामि भई वो यावन्तत्थ समागता ।
तण्हाय मूलं खणथ उसीरत्थो व वीरणं ॥ गीता में दुःख के कारण को एक पंक्ति में कह दिया
___ "जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ।" गीता-अ० १३।८ उत्तराध्ययन में इसी भाव को इस रूप में व्यक्त किया है कि जन्म दुःखरूप है, बुढ़ापा दुःखरूप है, रोग और मृत्यु ये सभी दुःखरूप हैं आश्चर्य है कि सारा संसार दुःखरूप है । दुःख का मूलभूत कारण तृष्णा है।'
तीनों दृष्टिकोणों से दुःख के कारणों को उपस्थित कर दुःख बतलाया, पर दुःख से छूटने का उपाय क्या है ? इससे पूर्व दुःख-सुख की वास्तविकता को समझ लेना आवश्यक होगा । "यदिष्टं तत्सुखं प्राहुः द्वेष्यं दु:खमिहेष्यते"जो कुछ हमें इष्ट प्रतीत होता है, वही सुख है और जिससे हम द्वेष करते हैं अर्थात् जो हमें रुचिकर नहीं, वह दुःख है। दुःख संसार का कारण है और सुख आत्मानंद का कारण । आत्मानंद से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है। जब तक व्यक्ति राग-द्वेष की समाप्ति नहीं कर देता, तब तक वह सुख को प्राप्त नहीं कर पाता है। इसलिए राग-द्वेष का नाश करें।" यही सुख का साधन है । परन्तु जो मनुष्य दूसरों को दुःख देने से अपने सुख की इच्छा करता है, वह वैर के संसर्ग में पड़ा हुआ वैर से नहीं छूटता। ऐसा मनुष्य जो कर्तव्य है उसे छोड़ देता है, और अकर्त्तव्य को करने लगता है।" गीतारहस्य में तिलक ने सुख-दुख के विषय में लिखा है "चाहे सुख हो या दुःख, प्रिय लगे अथवा अप्रिय, परन्तु जो कार्य जिस समय जैसे आ पड़े, उसे उसी समय मन को निराश न करते हुए (कर्तव्य को न छोड़ते हुए) करते जाओ । ......"संसार में अनेक कर्तव्य ऐसे हैं, जिन्हें दुःख सहकर भी करना पड़ता है।"१२ 'न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् ।" ५।२०। सुख पाकर हर्षित नहीं होना चाहिए और दुःख से खिन्न नहीं होना चाहिए। क्योंकि आत्मा ही सुख-दुःख को उत्पन्न करने वाली और यही दुःख को क्षय कर अनंतसुख को प्राप्त करने वाली है। श्रेष्ठ आचार वाली आत्मा मित्र और दुराचार वाली आत्मा शत्रु है।" (तुममेव मित्तं तुममेव सत्तु) इसलिए दुःख के जो मूलभूत कारण है, उन्हें नाश कर देना ही सुख का साधन है। बुद्धने पापवग्ग में उपदेश दिया है कि "मनुष्य कल्याणकारी कार्य करने के लिए ऐसे कारणों को जुटाये जिससे सुख की उपलब्धि हो सके और दुःखरूप संसार से शीघ्र ही मुक्त हो सके । यह दुःख संसार में नाना गतियों में भटकाता रहता है।" ऐसे कार्य करना सरल है जो बुरे हैं और अपने लिए अहितकर हैं । जो हितकारी और अच्छे हैं, उनमें हमारी बुद्धि ही नहीं जाती । क्योंकि उनका करना अत्यन्त कठिन होता है "न तं अरी कंठछेत्ता करेइ, जं से करे अप्पणिया दुरप्पा ।" अर्थात् "दुराचार में प्रवृत्त आत्मा अपना जितना अनिष्ट करता है, उतना अनर्थ गला काटने वाला शत्रु भी नहीं करता।" मनुष्य का जन्म अशाश्वत और दुखों का घर है तथा यह संसार अनित्य और सुख रहित है ।....."सुख कोई सच्चा पदार्थ नहीं है फलतः सब तृष्णाओं, कर्मों को छोड़े बिना शांति नहीं मिल सकती।
मोक्ष और मोक्षोपाय--अज्ञान रूप दुःख की निवृत्ति का नाम मोक्ष है। जैनदर्शन में आत्मा की विशुद्ध एवं स्वाभाविक (कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः) तथा सम्पूर्ण कर्मों की समाप्ति का नाम मोक्ष माना है । बौद्ध दर्शन में निर्वाण को (निव्वानं परमं वदन्ति बुद्धा-धम्मपद-गा० १८४) मोक्ष कहा है । आत्यन्तिक दुःख की निवृत्ति ही 'निर्वाण' है। 'निर्वाण' ज्ञान के उदय से होता है। गीता में नैष्कर्म्य, निस्वैगुण्य, कैवल्य, ब्रह्मभाव, ब्राह्मीस्थिति, ब्रह्मनिर्वाण को मोक्ष कहा है । वेदों के पढ़ने में, यज्ञों में और दानों में फल निश्चित हैं, पर ब्रह्मज्ञानी उस सबको उल्लंघन कर जाता है और वह सनातन परमपद को प्राप्त हो जाता है।" सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की योग्यता को जब व्यक्ति प्राप्त कर लेता है तो वह मोक्षपथ या मोक्ष की ओर अग्रसर हो जाता है। उत्तराध्ययन के अट्ठाइसवें अध्ययन में मोक्षमार्ग का भली प्रकार से चित्रण किया गया है । तथा कहा है :
नाणेण जाणई भावे, सणेण व सद्दहे ।
चरित्तेण निगिण्हाइ, तवेण परिसुज्झइ ।। अर्थात् मोक्षार्थी ज्ञान से पदार्थों को जानता है, दर्शन से श्रद्धान करता है, चारित्र से कर्मास्रव को रोकता है और तप से विशेष शुद्धि करता है । २६, ३०, ३१, ३२, ३३, ३४ में अध्ययनों क्रमशः आत्मोत्थानकारी प्रश्नोत्तर, तपश्चर्या
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