Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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औ पुष्करमुनि अभिनन्दन प्रन्थ : सप्तम खण्ड
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गणराज्यों का वैशिष्ट्य उस संघ में शामिल राज्यों के स्वातन्त्र्य, निर्णयों में विचार-विनिमय और एक दूसरे के प्रति मैत्री और आदर भाव में था।
(६) राजनीति पर धार्मिक और दार्शनिक चिन्तन का प्रभाव-महावीर के युग तक भोगभूमि की 'योगलिक व्यवस्था' से लेकर 'गणराज्य' तक की राजनीति का जो विकास हुआ था, उसमें धार्मिक और दार्शनिक चिन्तन का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। तीर्थंकरों ने प्रत्येक जीव की स्वतन्त्र सत्ता का प्रतिपादन करके व्यक्ति स्वातन्त्र्य को जो प्रतिष्ठा दी थी, उससे 'श्रावकाचार' की एक विशेष आचार-संहिता विकसित करने में चिन्तकों को एक नयी दृष्टि प्राप्त हुई।
'अनेकान्त' के चिन्तन ने एक-दूसरे के विचारों को आदर देने तथा स्याद्वाद ने अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के नियमन का मार्ग प्रशस्त किया।
पाश्र्वनाथ के 'चाउज्जाम संवर' तथा महावीर के 'पंच व्रतों' ने समाज में सुव्यवस्था और समान वितरण की व्यवस्था को बल दिया। शासक और शासित दोनों को अपनी मर्यादाओं का बोध कराया। विभिन्न सन्दर्भो में आये उल्लेख राजनीति के सन्दर्भ में भी महत्वपूर्ण हैं । दशवकालिक में एक स्थान पर आया है
"जहा दुम्मस्स पुफ्फेसु भमरो आवियइ रसं ।
न य पुष्पं किलामेइ सो य पोणेइ अप्पयं ॥ १/२॥" जिस प्रकार भ्रमर फूलों से रस ग्रहण करके अपना निर्वाह करता है, किन्तु फूल को किसी प्रकार की क्षति नहीं पहुंचने देता, उसी प्रकार शासन को प्रजा से अपना भागधेय ग्रहण करना चाहिए । - जैन राजनीति में हिंसा का प्रश्रय लेने की बात कहीं भी नहीं कही गयी। अनीति का आश्रय लेने की बात भी अनुमत नहीं है । भरत के इन दोनों कार्यों की शास्त्रकारों ने विगर्हणा की है।
(७) राजनीति विषयक जैन साहित्य-ऊपर हमने जैन वाङमय में उपलब्ध उन सन्दर्भो की चर्चा की है जिनका अध्ययन अनुसन्धान 'जैन राजनीति तथा प्राचीन भारत के राजनैतिक और सांस्कृतिक इतिहास की दृष्टि से किया जाना चाहिए।
जिनसेन के आदिपुराण तथा अन्य पुराण और चरित साहित्य में राजनीतिशास्त्र की जो सामग्री उपलब्ध होती है, उसे मात्र जैन राजनीति कहना उपयुक्त न होगा, सम्पूर्ण भारतीय सन्दर्भ में उसे जांचा-परखा जाना चाहिए।
राजनीति पर इस समय जैनाचार्यों की स्वतन्त्र रचनाएँ मात्र दो उपलब्ध हैं। सोमदेव सूरि (१०वीं शती) का 'नीतिवाक्यामृत' और हेमचन्द्र सूरि (११वीं शति) की 'लघु-अर्हनीति' या 'अर्हन्नीतिसार' ।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र के बाद भारतीय राजनीतिशास्त्र पर संभवतया एकमात्र सोमदेव का नीतिवाक्यामृत अद्वितीय ग्रन्थ है । पिछले दो दशकों में इस ग्रन्थ पर दो शोध प्रबन्ध लिखे गये
१. सोमदेव : एक राजनीतिक विचारक ।
डॉ. पी. एम. जैन, आगरा विश्वविद्यालय द्वारा सन् १९६४ में पी-एच. डी. के लिए स्वीकृत ।
अप्रकाशित। २. नीतिवाक्यामृत में राजनीतिक आदर्श एवं संस्थाएँ।
डॉ० एम. एल. शर्मा, लखनऊ विश्वविद्यालय द्वारा पी-एच. डी. के लिए स्वीकृत । भारतीय ज्ञान
पीठ द्वारा 'नीतिवाक्यामृत में राजनीति' नाम से प्रकाशित ।।
जैन राजनीति पर एक स्वतन्त्र शोध प्रबन्ध भी लिखा गया, जिस पर आगरा विश्वविद्यालय ने सन् १९५५ में लेखक श्री श्यामसिंह जैन (s. S. Jain) को पी-एच. डी. की उपाधि प्रदान की। यह शोध प्रबन्ध अभी तक अप्रकाशित है।
(८) आदिपुराण के विशेष सन्दर्भ-जिनसेन (नवीं शती) कृत आदिपुराण में प्रतिपादित राजनीतिशास्त्र को डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री ने गुप्तवंशीय सम्राट् द्वितीय चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की राज्य व्यवस्था से तुलनीय बताया है। जिनसेन राष्ट्रकूटों की राजनीति और शासन व्यवस्था से भी निकट से परिचित थे। इसलिए आदिपुराण में उसका समावेश भी स्वाभाविक है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि आदिपुराण में प्रतिपादित राजनैतिक सिद्धान्त पौराणिक, गुप्तवंशीय तथा राष्ट्रकूट राजनीति का सम्मिलित रूप है।
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