Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन अन्य
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प्रेम और मोह में बड़ा अन्तर हैप्रेम हृदय से होता है,
मोह शरीर से। प्रेम, चैतन्य सम्बन्ध है,
मोह, जड़-सम्बन्ध प्रेम, ऊर्ध्वमुखी है,
मोह, अधोमुखी प्रेम, उपासना है,
मोह, वासना। ४६. पैर की सुरक्षा के लिए समूची धरती पर चमड़ा बिछाने की जरूरत नहीं है, सिर्फ अपने पैर को
जूता आदि से रक्षित करने की आवश्यकता है। सुख पाने के लिए संसार का वातावरण अनुकूल बने या नहीं, किन्तु अपने को वातावरण के अनु
कूल बनाकर सुख का अनुभव किया जा सकता है। ४७. विनम्रता सफलता की निशानी है।
फलवान वृक्ष झुकता है, जल भरा बादल झुकता है और ज्ञानवान मनुष्य झुकता है। ४८. सिद्धि के बिना प्रसिद्धि नहीं मिल सकती।
भावना के बिना प्रभावना नहीं हो सकती।
साधना के बिना सफलता नहीं मिल सकती। ४६. डाक्टर का छुरी से काटना भी हित के लिए है।
वैश्या का कोमल स्पर्श भी दुख और पीड़ादायी है। ५०. प्रेम की तीन श्रेणियां हैंगुरु का प्रेम
सर्वोत्तम माता का प्रेम
उत्तम पत्नी का प्रेम
सामान्य ५१. नदियों का मीठा जल समुद्र में गिरकर खारा क्यों हो जाता है ? क्योंकि वह संग्रहकर्ता है।
जमाखोरी में मधुरता भी कड़वाहट में बदल जाती है। समुद्र का खारा पानी बादलों में पहुँचकर मीठा क्यों हो जाता है ?
क्योंकि वे दानदाता हैं। दानी की कटुता भी मधुरता में परिणित हो जाती है। ५२. सूर्य पर जैसे बादलों के आवरण आते है, हट जाते हैं। फिर आते हैं, फिर हट जाते हैं। जीवन में
सुख-दुःख और सफलता-असफलता को भी इससे अधिक महत्त्व नहीं देना चाहिए। ५३. पत्थर की कठोर चट्टानों के भीतर से जल के स्वच्छ-शीतल झरने निकल सकते हैं तो क्या कठोर
कर और दुष्ट मनुष्य के अन्तर से दया का निर्झर नहीं फूट सकता ? ५४. मनुष्य स्वभावतः क र एवं पतित नहीं, उसकी दयालुता और पवित्रता में विश्वास रखो, किसी भी
एक छोटी सी प्रेरणा से उसका सोया देवत्व जाग सकता है। ५५. एक छोटी सी चिनगारी लाखों मन रुई के ढेर को भस्म कर सकती है तो क्या छोटी-सी प्रार्थना
या छोटा-सा सदाचार ढेर सारे पापों का नाश नहीं कर सकता? ५६. देवता की आकृति में अंकित किसी पत्थर या चित्र का भी जब अपमान नहीं किया जाता, तो
मानव आकृति में सजीव मनुष्य का अपमान क्यों ? ५७. अपमान और निन्दा-ऐसे आग के गोले हैं जो फैंकने वाले को ही पहले जलाते हैं। ५८. आग जहाँ पैदा होती है वहीं पर जलाना शुरू कर देती है। क्रोध जिस दिल में पैदा होता है पहले
उसी दिल को जलाता है। ५६. थोड़ा-सा नमक भी खाद्य वस्तु का स्वाद बदल सकता है, तो क्या थोड़े से सज्जन संसार का
स्वरूप नहीं बदल सकते? ६०. याद रखो, तुम पत्थर के ढेले नहीं जो जहाँ गिरे वहीं बिखर कर शांत हो गये, तुम गेंद हो, जो
बार-बार गिरने और चोट खाने पर भी उछल कर अपने को सक्रिय रखती है।
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