Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठम खण्ड
दक्षिण श्रेणियां राज्य के रूप में प्रदान की। विद्याओं के धारक होने के कारण वे "विद्याधर" कहलाए और उनका वंश "विद्याधरवंश" नाम से विख्यात हुआ। इसी विद्याधरवंश की दो शाखाएँ हैं-राक्षसवंश और वानरवंश । राक्षस द्वीप के कारण राक्षसवंश नाम चल पड़ा, इस वंश को राक्षसी विद्या भी प्राप्त थी। वानरद्वीप के निवासी विद्याघर वानरवंशी कहलाए । उनके मुकुट, ध्वज आदि वानर-चिह्न से अंकित थे।
पउमचरियं आदि ग्रन्थों का प्रारम्भिक भाग विद्याधरों के प्रताप और लीलाओं की गाथा मात्र है । रावण आदि ने तपस्या करके विद्याएँ प्राप्त की। उनका प्रयोग करके युद्ध-भूमि में वानरों-राक्षसों ने अद्भुत लीलाएँ प्रदर्शित की। रामायण में विद्याधरों की विद्याओं का स्थान-स्थान पर उल्लेख मिलता है। रावण ने इन्द्र, वरुण, चंद्र आदि को जीत लिया था, वे देव नहीं थे, विद्याधर थे।
() देव और देवियाँ-जैन रामकथा में देवों और देवियों का उल्लेख मिलता है । परन्तु ये इन्द्र आदि देव ब्राह्मण परम्परा के देवों से भिन्न हैं, वे कतुंमकतुंमसमर्थ नहीं हैं।
(ज) शलाका पुरुष-कहा जा चुका है कि वेसठ शलाका पुरुषों की कथाएं जैन पुराणों का वर्ण्य-विषय हैं । उनके अनुसार प्रत्येक कल्प में २४ तीर्थंकर और १२ चक्रवर्तियों के अतिरिक्त नौ बलदेव, नौ वासुदेव या नारायण और नौ प्रतिवासुदेव उत्पन्न होते हैं । इन नौ त्रयिओं में से प्रत्येक त्रयी के बलदेव-वासुदेव-प्रतिवासुदेव समकालीन होते हैं। बलदेव-वासुदेव तेजस्वी, ओजस्वी, परम प्रतापी, कान्त, काम्य, सुभग, प्रियदर्शन, महाबली और अपराजेय होते हैं वस्तुतः "बलदेव" और "वासुदेव" उपाधिविशेष हैं । वासुदेव तीन खण्डों के अधिपति, अर्थात् “अर्ध-चक्रवर्ती" माने जाते हैं। प्रतिवासुदेव का भी तीन खण्डभूमि पर आधिपत्य होता है । वस्तुतः वह भी महान पुरुष होता है, परन्तु जीवन के उत्तर काल में वह अधिकार के मद में अन्याय और अत्याचार करने लगता है। उस अन्याय को मिटाने के लिए वासुदेव को प्रतिवासुदेव से युद्ध करना पड़ता है। युद्ध में वासुदेव प्रतिवासुदेव को पराजित करके उसका वध करता है । हिंसा के कारण वासुदेव-प्रतिवासुदेव नरक में जाते हैं, जब कि बलदेव स्वर्ग अथवा मोक्ष-लाभ कर लेता है।।
सहस्रों भवों में उत्तमोत्तम कर्म करते हुए विशिष्ट जीव बलदेव के रूप में उत्पन्न है, वह अहिंसा आदि व्रतों का धारी तथा स्वर्ग या मोक्षगामी होता है । तुलनात्मक दृष्टि से वासुदेव बलदेव की अपेक्षा अति उन स्वभाव का होता है, सांसारिक भोगविलास की भी अभिलाषा उसमें अधिक होती है।
रामायण के राम, लक्ष्मण और रावण क्रमशः आठवें बलदेव, आठवें वासुदेव और आठवें प्रतिवासुदेव माने गये हैं। (७) दार्शनिक पृष्ठभूमि
(क) जीव : जैनदर्शन के अनुसार, जीव स्वतंत्र भौतिक तत्त्व है। उसका प्रमुख लक्षण है-चैतन्य, जिससे वह समस्त जड़ पदार्थों से भिन्न जाना जा सकता है । वह किसी से उत्पन्न नहीं है । वह न किसी का अंश है, न अन्त में किसी में विलीन हो जाता है । वह अनादि-निधन है। फिर भी वह देह-प्रमाण है । जीवों के दो भेद हैं-(१) संसारी जीव, अर्थात् वे जीव, जो अपने कर्म-संस्कारों के कारण नाना योनियों में उत्पन्न होते हुए शरीरों को धारण करते हुए जन्म-मरण द्वारा संसरण करते रहते हैं, और (२) मुक्त जीव, अर्थात् वे जीव जो अपने कर्म-संस्कारों से मुक्त होकर शुद्ध रूप में सदा स्थित रहते हैं।
जैन रामायणों में उनके रचयिताओं ने यथास्थान जीवों की स्थिति का वर्णन किया है। उदाहरण के लिए सीता के अपहरण के पश्चात् उसकी खोज करने वाले व्यथित-हृदय राम से दो चारणमुनि मिले । उन्होंने राम को ढाढ़स बंधाने के हेतु सुन्दर दिखाई देने वाली नारी के घिनौने रूप का उल्लेख किया और ऐसी नारी के उदर में जीव किस स्थिति में गर्भवास करता है, इसका वर्णन किया है।
संसारी जीव जुए में जुते हुए तेली के बल की तरह संसार में भटकता हुआ कभी नहीं थकता। वह संसार में आते-जाते और मरते हुए सबको रुलाता है। खाते हुए उसने तीनों लोक खा डाले और जल-जलकर सारी धरती फूंक डाली । वह नट की तरह सैकड़ों रूप ग्रहण कर जन्म, जरा और मरण की परम्परा में भटकता रहता है । वे राम से कहते हैं, तुम और सीता दोनों सैकड़ों योनियों में जन्म पा चुके हो। (पउम चरिउ, संधि ३६)
जीव सम्बन्धी अधिक जानकारी हनुमान के शब्दों में दी गई है। रावण की सभा में हनुमान रावण को उप
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