Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन अन्य सप्तम खण्ड
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यही कारण है कि आधुनिक मानव विभिन्न मतवादों और साम्प्रदायिक रूढ़ियों की बात्या में विलुण्ठित हो रहा है। उसका अपना ज्ञानबोध अहंकार के अंधेरे में डूब गया है। ऐसी स्थिति में श्रमण-संस्कृति के पंचयाम धर्म की प्रोज्ज्वल प्रभा उसके तिमिरावृत हृदय को भास्वर बना सकती है। उसके दिग्भ्रष्ट जीवन-पोत के लिए अनेकान्तजयपताका दिशासूचक यन्त्र का काम कर सकती है। क्योंकि, श्रमण-संस्कृति के पंचयाम धर्म में मानव की चेतना को अमावश्यक आग्रह से अलग कर अपेक्षित अनाग्रह के ज्योतिष्पथ की ओर ले चलने की अपरिमित शक्ति है। कहना न होगा कि श्रमण-संस्कृति में जीवन के विधायक अनेक महत्त्वपूर्ण पक्ष-जैसे अवर्णवाद, धार्मिक आचरण के नाम पर हिंसा एवं परिग्रहमूलक आडम्बरों का प्रतिक्षेप, सैद्धान्तिक मतों का समन्वय, सामाजिक जीवन में समतावाद की स्थापना के द्वारा स्त्री-पुरुषों के लिए समान प्रगति की योजना, अधिक धन का प्रत्याख्यान और प्राप्त धन का स्वामित्वहीन समान वितरण, पूंजीवाद का विरोध, ऊंच-नीच और स्पृश्यास्पृश्य जैसी समाजोत्थान-विरोधी भावना का निराकरण आदि-प्रतिनिहित हैं, जिनसे उसके उदात्त दृष्टिकोण का प्रत्यक्ष परिज्ञान प्राप्त होता है।
श्रमण-संस्कृति में श्रमण, ब्राह्मण, मुनि और तापस के लिए किसी निर्धारित वेश-विशेष की आवश्यकता नहीं। भगवान महावीर ने इनकी परिभाषा उपस्थित करते हुए निर्देश किया है :
न वि मुण्डिएण समणो न ओंकारेण बम्मणो। न मुणी रण्णवासेणं कुसचीरेण न तावसो॥ समयाए समणो होइ बम्भचेरेण बम्भणो। नाणेण य मुणी होइ तवेणं होइ तावसो॥
-उत्तरा० २५॥३१-३२ निस्सन्देह, केवल सिर मुड़ा लेने से कोई श्रमण नहीं होता, न ही ओंकार के जप से ब्राह्मण । जंगल में रहने से ही मुनि नहीं होता और न कुश तथा चीवर धारण करने से तपस्वी। वस्तुतः, जो समता से सम्पन्न है, वही श्रमण है, ब्रह्मचर्य का उपासक ही ब्राह्मण है, ज्ञानी ही मुनि है और तप करने वाला ही तपस्वी।
- इस प्रकार श्रमण-संस्कृति ने प्रत्येक व्यक्ति को उत्थान के मार्ग का अधिकारी घोषित किया है । अपनी साधना से सर्वसामान्य व्यक्ति भी पारमैश्वर्य की सिद्धि सुलभ कर सकता है। श्रमण-संस्कृति ने ईश्वर के कतृत्व को नकारते हुए मानव के अजेय पुरुषार्थ के प्रति अडिग आस्था अभिव्यक्त की है। आत्मशक्ति के प्रति अविश्वास हो जाने के कारण ही बह किसी पारमेश्वरी शक्ति की कल्पना कर उसके प्रति समर्पित हो जाता है। परवर्तीकालीन भक्त कवि चण्डीदास की प्रसिद्ध काव्य-पंक्ति–'सबार ऊपरे मानुस सत्य' में धमण-संस्कृति का ही उदात्त दृष्टिकोण समाहित है।
श्रमण-संस्कृति के उदात्त विचारप्रधान दार्शनिक चिन्तन ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को भी अनुकूलित किया था और गांधीजी के प्रसिद्ध ग्यारह व्रतों में प्रारम्भ के पाँच व्रत भगवान महावीर के ही पंचयाम धर्म से आकलित हैं। कहना यह चाहिए कि महात्मा गांधी का जीवन-दर्शन श्रमण-संस्कृति के जीवन-दर्शन का ही परवर्ती व्यापक विस्तार है, जिसकी उदात्त विचारधारा परम्परानुक्रम से विकसित होकर आज की सामाजिक एवं आर्थिक अभ्युत्थानुमूलक राष्ट्रीय योजना विशसूत्री कार्यक्रम से आ जुड़ी है। इसलिए; यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि राष्ट्रीय अभियान के प्रत्येक पड़ाव पर या सामाजिक जीवन के हर मोड़ पर प्रगति और उत्कर्ष का मन्त्र फूंकने वाली श्रमण-संस्कृति को किसी विशिष्ट देश, काल, आयु, नाम, गोत्र आदि की सीमा में रखकर देखने की अपेक्षा सम्पूर्ण विश्व के सन्दर्भ में मंगलकारी उदात्त दृष्टिकोण का ही पर्याय समझना समीचीन है।
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