Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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अहिंसा : वर्तमान युग में
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देवालयों में तो हमने बहुत अहिंसा साध ली और रसोई घर की अहिंसा के लिए भी हम बहुत सजग हैं, पर समाज जीवन में हमने धन की सत्ता स्वीकार ली है, व्यापार-व्यवसाय के शोषण-अन्याय-अत्याचार के साथ समझौता कर लिया है, हुकूमत की मनमानी के आगे घुटने टेक दिए हैं-इस कारण मनुष्य की दिशा ही बदल गई है। उसका सामाजिक जीवन हिंसा आधारित हो गया है।
अहिंसा इस मुकाम पर ठिठकी खड़ी है। उसका दायरा फैलना चाहिए। जब तक वह मानव समाज के सम्पूर्ण जीवन को नहीं छूती-उसके व्यापार-व्यवसाय में, हाट-बाजार में, राजनीति में, कल-कारखाने में नहीं उतरती तब तक पंगु ही बनी रहेगी। आज के अहिंसा-धर्मी के सामने यह एक बड़ी चुनौती है। उसे यह देखना होगा कि किनकिन बातों ने मनुष्य को तोड़ा है, उसकी संवेदनशीलता को फोका किया है, करुणा को क्रूरता में बदला है, प्रेम का स्थान बैर ने लिया है और अपने ही समुदाय में आदमी भयभीत होकर दीनता का शिकार बना है। अहिंसा के क्षेत्र में मनुष्य के सामने यह एक महा-भागीरथ कार्य है। वह इसे नहीं छूएगा तो उसका सारा आत्मबोध जो उसने इतना चलकर प्राप्त किया है, अर्थहीन हो जायगा। भले ही वह अपने व्रत-उपवासों में और भोजन की थालियों में अहिंसा पालता रहे और मुंह से अहिंसा का जयघोष करता रहे-बर्तमान युग में बढ़ रही समाज जीवन की हिंसा उसे ढंक लेगी। यह सम्भव नहीं है कि हमारे कदम हिंसा के डग भरते रहें और हम अहिंसा की वाणियाँ उच्चारते रहें। हमारे चारों ओर कांस की तरह उग रही हिंसा का मुकाबिला किये बिना अहिंसा हाथ नहीं आयगी।
पहले अपरिग्रह फिर अहिंसा - अहिंसा के पंगु हो जाने का जो एक बुनियादी कारण है, वह यह है कि हमने अहिंसा की आधारशिलाबैकबोन को पकड़ा ही नहीं। अहिंसा की पीठ पर महावीर ने लिख दिया था 'अपरिग्रह'। यह अहिंसा का बैकबोनमेरुदण्ड है । पर आज सादा-सरल जीवन प्रतिष्ठित नहीं है। मेहनत से कमाई सूखी रोटी लाचारी है, समाधान नहीं। वस्तुहीन मनुष्य पर वस्तू न होने की चिन्ता का अधिक बोझ लदा है। हमारा सारा प्यार, सम्मान, नेह और आदर 'त्याग' के पक्ष में पहुँचना चाहिए था, पर वह बटोरने वाले की गोद में जा रहा है। मनुष्य की आँखें वहीं टिकी हैं, जहाँ वैभव है, अधिकार है । उपभोग की अन्धाधुन्ध दौड़ ने मनुष्य को तो खण्ड-खण्ड किया ही है, प्रकृति को भी तोड़ा है। इकॉलाजी (परिस्थिति विज्ञान) ने खतरे की घण्टी बजाना शुरू कर दिया है। जीवन-स्तर की कभी न बुझने वाली चाह के कारण इन्सान ने प्रकृति को इतना दुहा है कि उसके सारे भण्डार चीं बोल रहे हैं। मनुष्य के उपभोग का सामान प्रकृति से मिल पायेगा या नहीं, यह खतरा सामने है। जीवन के लिए प्रकृति, प्राणी जगत् और मनुष्य के बीच गहरे विवेकशील सामंजस्य की जरूरत है। हमें अपना उपभोग सीमित करना होगा। जितनी जरूरत है, उतना ही लेना होगा और बदले में प्रकृति को वह सब लौटाना होगा जो उसे तोड़े नहीं, बल्कि पुष्ट करे । हमने प्रकृति को बेशुमार जहरीली गैस, गन्दगी, नाशक दवाइयाँ, केमिकल्स, दूषित वायुमण्डल दिया है। यदि उपभोग की वस्तुएँ सीमित नहीं हुईं और हमारे कल-कारखाने वे सब सामान उगलते रहे जो एक ओर तो मनुष्य को तोड़ रहे हैं और दूसरी ओर प्रकृति का विनाश कर रहे हैं तो अनचाहे हम हिंसा का ही वरण कर रहे हैं और करते जायेंगे । ऐसी स्थिति में हमारी यह परम्परागत देवालयी और रसोईघर की अहिंसा हमारा कितना साथ देगी? अहिंसा तभी जीवन में उतरेगी जबकि मनुष्य उसकी आधारशिला-बैकबौन--अपरिग्रह को भी जीवन में लायेगा और प्रतिष्ठित करेगा।
आज के युग की अहिंसा का सीधा मुकाबिला परिग्रह से है, वस्तुओं के अम्बार से है, उपभोग की असीम चाह से है और उपने लिए अधिकाधिक पा लेने या बटोर लेने की आकांक्षा से है। एक ऐसा युद्ध, जो हमें एक नई जिन्दगी जीने के लिए ललकार रहा है । मनुष्य को अपना पूरा जीवन बदलना होगा-बाहर से भी और भीतर से भी।
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